Monday, December 21, 2009

लव आजकल

अब लोग मुहब्बत नहीं करते
बस प्यार करते हैं
गिफ्ट देकर
'आई लव यू' बोलकर
आज का प्यार
बाजारू हो गया है
जिस्म की भूख मिटाने की
एक जरूरत भर रह गया है
मुहब्बत महमूज़१ हो गया है.

ना अब ताजमहल बनते हैं
ना लैला मजनू पैदा होते हैं
ना महबूब में अदाएं रहीं
ना बांकपन और शर्मो हया
ना दीवानगी बची
ना गजलें लिखी जाती हैं
ना उसके कद्रदान रहे
ना वो जज़्बात रहे

हुस्न अब नंगा घूमता है
आवारा सड़कों पर.

ना वो रूमानियत रही
ना वो जोशे जूनून
ना परस्तिश की तमन्ना होती है
ना फ़ना होने की कूव्वत
ना किसी परीज़ादा की निगाहों में
वो कशिश रही
ना उसकी बातों में नशा
अब कौन मर मिटने की बात करे?
सिर्फ 'आई मिस यू' से ही
काम चल जाता है
इश्क के नाम पर अगर
कुछ बचा है तो बस
छिछोरापन और सेक्स.

हम इश्क करें तो किससे?
औबाश२ निगाहें
हर चीज़ की कीमत लगा बैठती हैं.

१ दूषित २ लुच्ची

Wednesday, December 16, 2009

मर्म

लोग तो वो देखते हैं
जो मैं दिखाता हू.
मेरे दिल की बात
कोई कैसे समझे?
और मैं कैसे बयान करू?
कहा से लाऊ वो अल्फाज
जो मापकार बता दे
मेरे जजबात, मेरा दर्द.

वैसे न तो किसी की
दिलचस्पी ही हैं इसमे
न मैं बताना चाहता हू
कि मेरा गम कितना हैं
कि कितने परत दर परत
आंसू छुपे हुये हैं

लेकीन जब कुछ बातें
नासूर बनके चुभती हैं तो
सैलाब सा बह जाता हैं
लाख कोशिशो के बावजूद
और लोगो को हंसने का
एक और बहाना मिल जाता हैं.

सच कहूं तो
इस एक जिंदगी में
कई जिंदगानियां देख भी ली
और जी भी ली.

Thursday, November 12, 2009

पीड़ा

जो भी माँगा मिला नहीं
फिर भी मुझे गिला नहीं
पता नहीं कब दिन गया
एक एक कर सब छिन गया
मैंने रात भर रोया है
ज़िन्दगी में बस खोया है.

तलाश थी थोडी ख़ुशी की
इंतज़ार था होगी सुबह
जिसे भी पुकारा वो सुना नहीं
क्या पता क्या थी वजह
मुझे राह में पतझड़ मिले
हर मोड़ पर सहरा मिला
कभी मरहले खो से गए
कभी रास्ते हुए गुमशुदा
मैं तरस गया हर बूँद को
नाराज़ था शायद खुदा.

लख्ते- जिगर कट कट गए
खून सारा पानी हुआ
गैरत क्या शर्मो हया
खूब रंग लायी मेरी दुआ
अब खौफ किस बात से
हंस ले जिसे हँसना है
बन गया हूँ तमाशागर
आकर तेरी दुनिया में
परवरदिगार दे ऐसी सजा
ना कोई मर सके ना जी सके.

Friday, October 30, 2009

ज़िन्दगी

क्या मिला, क्या खो दिया
ज़िन्दगी के इस सफ़र में. . .

किसे रुसवा किया, धोखा दिया
किसको हंसाया, किसको रुलाया
किसे गम दिया, किसको ख़ुशी
कितने वादे किये झूठे.

आओ करें इसका हिसाब.

कितने आंसू रोये छुप छुप के
सिसकियाँ भरी, गश खाए
किस बात ने गुदगुदाया
क्या सोचकर आँखें छलकीं.

इस पर लिखें कोई किताब.

कितने चेहरे जो याद हैं?
पूछो दोस्तों के नाम
कभी हुआ दुआ सलाम या
कह दिया अलविदा फिर मिलेंगें.

कभी पूछा क्या हाल है जनाब?

काश कि कभी सर उठाकर
देखा होता आसमां का रंग
हवा से खुशबुओं को छानकर
चखा होता किसी दिन.

मिल गया होता हर जवाब.

Thursday, October 15, 2009

हमसफ़र

एक जमाना वो भी था
मुझको देखे बिना आराम ना था

मुझसे बातें करते नहीं थकते थे
दिल को बहलाना आसान ना था

उन्हें हर बात से फ़िक्र होती थी
अपनी हालत का कुछ ख्याल ना था

हरेक बात पे कसम खाते थे
खुद पे इतना कभी गुमान ना था

रास्ते में घंटों राह ताकना
गोया उन्हें और कोई काम ना था

आज जब मुंह फेर कर वो चले गए
मैंने जाना फिजा का रुख, बदल गया

वो कोई ख़्वाब समझ के भुला बैठे
शायद नया हमसफ़र मिल गया.

Wednesday, October 7, 2009

महत्वकांक्षा

नारी की तरह जीभ भी
चंचला और लालची होती है
असल में वही फसाद की
सारी जड़ रही है.
वरना पेट को
स्वाद से क्या मतलब?
पेट तो किसी भी चीज़ से
भरा जा सकता है.

मगर आदमी के अन्दर
अगर बेहतर खाने की इच्छा ना हो
कोई अभिलाषा ना हो
महत्वकांक्षा ना हो
फिर तो वह जानवर सरीखा ही है.
ज़िन्दगी में रंग ना हो
तो जीने का कहाँ आनंद?
अतएव
जीभ बिना पेट के होने का
कोई लाभ नहीं.

अफ़सोस आजकल
बिना जीभ वाली नस्लें ही
पैदा हो रहीं हैं.

Monday, September 14, 2009

एक बूँद

कहीं किसी रोज़
एक बूँद गिरा आसमान से
गिरते गिरते सोचा उसने
कि जा गिरूँ किसी नदी में
या झरने में
काश कि गिरूँ समंदर में
और समा जाऊं
उनफ़ती लहरों में
समेट लूं साड़ी कायनात
गरज गरज कर कह दूं
जमाने से
दम है तो आ आजमा ले
अपनी ताक़त
कर ले अपने शिकस्त का
यकीन.

डर भी था उसे कहीं
गिर ना जाए
किसी गंजे के सर पर
धोबी घाट में या
किसी बदबूदार गटर में

"ज्यादा सपने मत देख".
साथी बूँद बोला था.
मगर कहाँ ऐसा होता है
कि जो चाहो वो हो भी जाए?
गिर गया वह किसी परितक्य सी
शांत पड़ी पोखर में

कुछ बुलबुले उठे
और फिर . . .



--
With regards
Deepak
http://feelforthem.blogspot.com/
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http://dilkibaatdilse.blogspot.com/

Wednesday, September 2, 2009

बेतरतीब ख़्वाब - भाग तीन

शर्मीला टैगोर के साथ घंटों
बतियाता रहा,
कई पुरानी यादें ताजा हों आयीं
और उनकी आँखें डबडबा गयीं.
हीरोइन बनने के चक्कर में
कैसे पढ़ नहीं पायीं?
कितना बुरा लगा जब
उनको इग्नोर करके
आशा पारेख को
सेंसर का हेड बनाया गया.
कुछ देर उनकी गोद में सर रखकर
उन्हें दिलासा देता रहा
कि इतने में सैफ सिटी बजाता
कमरे में झूमता हुआ आया.
बहुत खुश था क्यूंकि उसे
कोई अच्छी फिल्म का
ऑफर मिला था.

इतने में पंचम दा जाने कहाँ से
टपक पड़े
रेडियो ऑन किया और गीत बजने लगा
"मेरे नैना सावन भादों. . ."
फिर मैंने उनसे पूछा:
"पंचमदा, आप तो किशोर दा को
बहुत अच्छी तरह से जानते थे
उनकी कोई निशानी दिखाओ ना
या फिर कोई बात ही बता दो"
कहने लगे-
"किशोर, लोगों को बहुत सताता था. . .
बहुत मजाकिया था".
इतना तो मैं भी जानता था
लेकिन अब जो उन्होंने बताया
वो मैंने किसी भी अखबार, रेडियो
या इंटरव्यू में ना पढ़ा ना सुना था.

"एक बार आशा से बोला:
मैं गाजीपुर में एक फिल्म के
फोटो सेशन के लिए गया था
वहां किसी बलाप्पम होटल में रुका था.
फिल्म का नाम था-
एक के बीच ३,६३८ चोर."
ना तो इस नाम का मुझे
कहीं होटल मिला गाजीपुर में
और ना ही वो फिल्म कभी रिलीज़ हुई.

पंचम ने यह भी बताया कि उन्हें
पपीते (?) से बहुत डर लगता था.

तभी अलार्म बज उठा
और मैं किशोर दा के बारे में
कुछ और नहीं जान सका.

Thursday, August 27, 2009

नौकरी

बड़ी घबराहट सी होती है
झुंझलाहट भी होती है
सोचता हूँ मेरी रचनाओं में
वजन पैदा क्यूँ नहीं हो रही?

"कैश फ्लो स्टेटमेंट" बनाते बनाते
शायरी की खुमारी कैसे छा जाती है?
क्या दिन थे गालिब
जब तुम नशे में धुत
खूबसूरत नज्में लिखा करते थे.

इधर तो दिन भर
कुत्ते की तरह काम करना पड़ता है
कमबख्त अँगरेज़ चले गए
लेकिन
इस नौकरी की दासता से
कौन निजात दिलाये?

अब ऐसा कोई माई का लाल
पैदा भी तो नहीं होता !!

Tuesday, August 25, 2009

बेतरतीब ख़्वाब- भाग दो

इन ख़्वाबों का सिलसिला
बदस्तूर जारी है
कभी थमता ही नहीं
लेकिन इस बार तो कुछ ज्यादा ही
संगीन थे.

एक दिन रत्ना पाठक आयीं थीं
अपने खसम की शिकायत लेकर कहने लगीं
इनसे कहो कुछ
बकवास फिल्में ही कर लें
यह खुद्दारी किस काम की?
घर में चूल्हा नहीं जला कई दिनों से
इन थियेटरों में रक्खा ही क्या है?

मैंने समझाने की कोशिश तो की
लेकिन नसीर साब जिद्दी जो ठहरे
कहाँ सुनते हैं किसी की?

फिर एक रात के लिए
प्रियंका चोपडा मेरे घर आ गई
जाने क्या दिखा उसको मुझमें
एक हफ्ते तक
मेरी बाहें गर्म करने के बाद
वह
जाने कहाँ गायब हो गयी.
आज भी वह शफ्फाफ बदन
आँखों में डोलता है.

दोस्तों, मैं पागल तो नहीं हो रहा?
वैसे अगर यह पागलपन है
तो इसमें भी मज़ा है
अजीब सी लताफत है.

इस बार तो हद ही हो गयी
मैं औरंगजेब के ज़माने में चला गया.
एक दिन अलसाई दोपहरी में
रेडियो चालू करता हूँ
तो किसी दंगे की खबर सुनता हूँ
जब खिड़की पर आता हूँ
तो वही खुनी दंगे दिख जाते हैं.
एक बड़े से मैदान में
सिक्खों और मुसलामानों में
मारकाट होती है.
दृश्य देखा नहीं जाता इसलिए
दूसरे कमरे में भाग जाता हूँ.
कोई भागकर अन्दर ना आ जाए
इसलिए मेरी बहन
झट से दरवाजे बंद कर देती है.

गुरु गोविन्द थे शायद
जिनकी पीठ में कोई छुरा भोंक देता है
फिर उन सरफरोशों के बीच
बुजदिली की चादर लपेटे
मैं शर्मसार हुआ जा रहा हूँ
उन खौफज़दा आँखों को यादकर
गालिब का वो शेर याद आ जाता है

"मौत का एक दिन मुय्यन हैं
नींद रात भर क्यूँ नहीं आती?"

रेडियो की आवाज़ से घबराकर
नींद खुल गयी
उस वक़्त रात के तीन बजे रहे थे

ज़िन्दगी महफूज़ नहीं
ख़्वाबों में भी अब
दंगे होने लगे हैं.

Friday, August 21, 2009

मेरी प्रिय नज़्म

ना किसी की आँख का नूर हूँ
ना किसी के दिल का करार हूँ
जो किसी के काम ना आ सके
मैं वो एक मुश्त- ए- गोबार हूँ.

ना तो मैं किसी का हबीब हूँ
ना तो मैं किसी का रकीब हूँ
जो बिगड़ चला गया वो नसीब हूँ
जो उजाड़ गया वो दयार हूँ

मैं कहाँ रहूँ मैं कहाँ बसूँ
ना यह मुझसे खुश ना वो मुझसे खुश
मैं ज़मीन के पीठ का बोझ हूँ
मैं फलक के दिल का गोबार हूँ

मेरा रंग रूप बिगड़ गया
मेरा यार मुझसे बिछड़ गया
जो चमन फिजा में उजाड़ गया
मैं उसी की फासले बहार हूँ

- शाह बहादुर ज़फर शाह

Wednesday, August 12, 2009

वो कहती है

वो कहती है
मैं रोमांटिक नहीं हूँ
प्यार भरी बातें नहीं करता
कोई अच्छा गिफ्ट नहीं देता.
वो सच कहती है मगर
मैं भी क्या करुँ ?

सुबह अखबार में पढ़ा
किसी नौजवान को कुछ गुंडों ने
पीट पीट कर मार डाला.
वह नौजवान किसी की जान बचाने में
खुद जान गवां बैठा.
सोचता हूँ अगर
मैं उसकी जगह होता तो?
अब ऐसे में कौन आगे आएगा
और आपकी जान बचायेगा?

अखबार में यह भी लिखा था
कुछ लोगों ने
पचास पुलिस वालों को मार गिराया
यह तो सरासर गलत है, भाई
लेकिन आप क्या करेंगें अगर
आप और आपके बच्चे
भूख से बिलख रहे हों?
आपके हाथ काम ना हो
घर ना हो, पानी ना हो,
पास कोई अस्पताल ना हो
जब रात के अँधेरे में
भायं भायं करता सन्नाटा
आपको बहरा कर दे
जब सरकार सो रही हो
और उसके नुमाईन्दे
हाथ पे हाथ धरे
आपकी बर्बादी का तमाशा देखें

आप और क्या करेंगें?

Tuesday, August 4, 2009

वक़्त जाया करने के लिए

हमने हवाओं को चूमने का इरादा जताया था
उसका गुरूर तो देखो उसने सैंडल दिखा दिया.

गरम है सूरज
तो उसकी क्या खता
कोई यह क्यूँ नहीं सोचता
उसके पास भी दिल होगा.
किसने की थी बेवफाई
जो वह आज भी जल
रहा है.

और कितनी कुर्बानी लोगे
सुना यह खबर?
आज फिर किसी दीवाने का
ज़नाज़ा उठ गया.

घंटो खड़े रहे कि शाम हो गयी
अब खिड़की खुलेगी, पर्दा सरकेगा
खिड़की खुली, पर्दा भी सरका मगर
कमबख्त !! बिज़ली ही गुल हो गयी.

मुबारक हो तुम्हे तुम्हारी जवानी
इसका अचार डालना.
अरे जब हम ही नहीं रहेंगे
तो तुम्हे गुले- गुलफाम कहेगा कौन?

Monday, July 27, 2009

तुम्हारी आँखें

जब भी उन आँखों में झांकता हूँ
इक अनजाना सा दर्द
घुमड़ता रहता है.
तुम मुस्कुराती रहती हो,
मगर जाने क्यूँ लगता है
एक सैलाब छुपाये हो,
पलकों में.
गौर से देखूं तो शायद
बरस पड़ें तुम्हारी आँखें.

कुछ नहीं कहके भी
बहुत कुछ कह देती हैं
तुम्हारी आँखें.
और तार तार कर देती हैं
मेरे दिल को,
फट जाता है मेरा
कलेजा.

क्यूँ इतना बेबस हो जाता हूँ?
आखिर कैसे ले लूं
तुम्हारी बलायें?
रो भी तो नहीं सकता
तुम्हारी खातिर;
अश्कों का कुँआ
सूख जो चुका है.
मैं दुआ भी करता तुम्हारे लिए
अगर,
खुदा बहरा नहीं होता.

Sunday, July 26, 2009

अंकल

पूछ के आई होती मौत
तो क्या बात थी
चूम लिया होता लबों को फिर से
वो मेरे पास ही लेती थी.

खुदा ने दिल दिया और कहा
पेशाब करना पाखाना नहीं.
यह खुदा भी अजीब है.

कहते हैं दिल आया गधी पर
तो परी क्या चीज़ ?
अब यह नस्ल भी चालाक हो गयी है.

देखती तो ऐसे है कि डंस लेगी;
नाज़ुक ज़वानी है लेकिन
पाए तो काट खाए.
हैहात नादाँ लड़की!!
अंकल बुलाती है मुझे.

जो देखकर मुस्कुरा देते हैं,
मेरे मरने के बाद कहेंगें:
था आदमी अच्छा मगर
सर बहुत खाता था.

Friday, July 24, 2009

पढ़ लीजिये, जाने क्या है?

चूमा था जिस तरह लहरों ने साहिल को
तुमने गिना?
मैंने भी नहीं.
ऐसी गिनतियाँ कहाँ याद रहती हैं.

लिखता गया लिखता गया
मालूम नहीं कि क्या लिखा
एक दिन किसी ने पूछ ही लिया
"मियाँ शायरी भी करते हो?"

तबियत तो ठीक थी, मिर्जा
बस ज़रा मुहब्बत हो गयी थी,
तकलीफों से.

शेरो शायरी नर्म हरी घासें हैं,
जो देखने में खुशनुमा तो लगती हैं
पर इनसे पेट नहीं भरता.

खामखा ज़ला बैठे सीना
इक बार तो सोच लिया होता,
क्या होता है अंजाम आशिकी का?

उनका पहला ख़त

उनका ख़त मिला
ख़त में था लिखा
सब हाल उनके दिल का.

लिखते हैं वो शुरू में
मेरी जान ए मेहरबां
मर मर के जी रही है
सुन तेरी दिलरुबा.
आगे लिखा है ख़त में
उन आंसुओं को पीके
तेरी आशिकी में जानां
सौ बार मरे हैं जीके.
गिरती हूँ मैं संभलकर
टकराई कई बार
कुछ होश नहीं रहता
जबसे हुआ है प्यार.

सखियों से हुई लड़ाई
कहें याद नहीं रहता
कैसे उन्हें बता दूं
दिल पास नहीं रहता.
अम्मी भी पूछती हैं
क्या ठीक नहीं तबियत
उनसे भी क्या बताऊँ
क्यूँ ले लिया मुसीबत.
तकिये के नीचे
तेरी तस्वीर रखती हूँ
जब दिल लगे सताने
चूमकर देखती हूँ.

Thursday, July 16, 2009

दर्द के मौसम

कोई भी हो मौसम हम
आंसू ही पीते हैं
अपने ज़ख्मी दिल का
लहू भी पीते हैं

उनके जैसे हो जाते
ऐ काश कि हम भी यारों
गम इतना तो ना सताता
गर खा सकते गम भी यारों
कि भूल जाएँ गम सारे
इसीलिए तो पीते हैं. कोई भी हो मौसम हम

वो भी था एक ज़माना
याद करते नहीं थकते थे
एक पल के लिए ओझल हों
तो रूठ जाया करते थे
अब ऐसे भूला बैठे हैं
जाने कैसे जीते हैं. कोई भी हो मौसम हम

कैसे कैसे वादे वो
हमसे किया करते थे
अपने हाथों में हमारे
हाथ लिया करते थे
अब मिटती नहीं वो लकीरें
चाहे जितना धुलते हैं. कोई भी हो मौसम हम

गर दिल ये हमारा इतना
मज़बूत हुआ करता तो
हम ऐसे टूट ना जाते
सब टूट के बिखरता जो
जीने की ख्वाहिश बाकी है
ज़ख्म तभी सीते हैं. कोई भी हो मौसम हम

Monday, July 13, 2009

वक़्त का दीमक

हम भी थे इक वक़्त सिकंदर.
क्या बेखौफ़ जवानी थी,
नसों में लहू उबलते थे,
झुक जाते थे कितने ही सर,
जब झूमके चलते थे.
जब दिलों में ख्वाहिशों के
बुलबुले बनते थे,
आँखों में कामयाबी का सुरूर
चढ़कर बोलता था,
कदम बहके- बहके से उठते थे,
पैरों के ठोकर पे रहती थी दुनिया,
मगरूर होता था बहुत
नासमझ दिल.
सोचते थे
सब कुछ यूँ ही रहेगा. . .

तब सवाल ज्यादा होते थे
जवाबों से,
जिद होती थी
कुछ कर गुजरने की,
तब अपनी ही मनवाने की धुन थी,
और ना किसी की कोई परवाह थी.
ओह! क्या क्या नहीं सोचते थे हम,
इन्किलाब की बातें करते नहीं थकते थे.

अब जब पीछे मुड़कर देखते हैं
तो लगता है कुछ तो नहीं बदला
कुछ भी बदल नहीं पाए हम.
वक़्त का दीमक हमें
धीरे धीरे खा गया.

आपकी खिदमत में

तुम तक पहुँचने के लिए काँटों से दोस्ती की
न था मालूम दिल में, भौरों को पनाह मिलती है.

लोगों ने कब्र खोदी थी किसी शायर की
लिफाफे में बंद, हसरतें मिलीं.

दिल में सुलगे थे अरमान पहले से कई
वो गैरों से बात करते हैं, हमें जलाने के लिए.

मुहब्बत तुमको भी है, मुहब्बत हमको भी है
तुम छुपाने में रहते हो, हम कहने से डरते हैं.

जान प्यारी होती, मिर्जा
तो अब्बा हजूर का बिज़नस सँभालते. . .
इश्क शौकिया थोड़े किया था.

मौत दर पे खड़ी है दुल्हन की तरह
जाना ही होगा, वक़्त आ गया रुखसती का.

Thursday, July 9, 2009

गुमनामी

दिल की बात दिल में ही, रहे तो अच्छा है
किसी से कुछ ना कहें, तो ही अच्छा है.

क्या करेगा सुनके भी कोई हाले- दिल
ना दे दिलासा हमें, तो ही अच्छा है.

कुछ तो सुनके बोसे भी बहा लेंगें
कुछ क्या करेंगें जाके सब पता है.

अगर मैं मांग लूं उनसे कोई दुआ
वो भी ना देंगे मुफ्त में, ये भी पता है.

शुक्रिया जो आयेंगें मेरे ज़नाजे में
जो ना आयेंगें उससे तो अच्छा है.

फुरकत के दो पल

जब वो करीब होता है
तब मैं, मैं कहाँ होता हूँ.
वो जिधर का रुख करता है
मैं वहाँ- वहाँ होता हूँ.
वो हँसता है, हँसता हूँ
जब रोता है, रोता हूँ.
उसे रात को ही मिलती है फुर्सत
इसलिए दिन में सोता हूँ.
ख़्वाब भी अब मेरे कहाँ
उसके ही ख़याल बोता हूँ.
जितनी देर जुदा हो मुझसे
उतना ही उसे खोता हूँ.

जब वो करीब होता है
तब मैं, मैं कहाँ होता हूँ.

नया ज़माना

क्या ज़माना आ गया
अब न गालिब रहे न मीर
न साहिर पैदा होते हैं न कैफ़ी.

अच्छा हुआ वो नहीं हैं
अगर आज होते भी तो
न कोई नज़्म लिख पाते न ग़ज़ल.

कोई लिक्खे भी कैसे
कहाँ हैं लैला और हीर की तबस्सुम
उनकी शर्मो हया?
वो बांकपन?
वो अल्हड़पन?

कहाँ है मजनूं जैसी दीवानगी?
कहाँ है वैसी पाक मुहब्बत?
सब कुछ वक्फ़ करने की कूव्वत?

खाईसातें

न मुझे रंज है किसी की बेवफाई का
न मैं नाकाम-ए- मुहब्बत हूँ.
न मुझे शिकवा है दोस्तों से
न गिला है खुदा से.
न तकदीर का मारा हूँ
न हारा हुआ जुआरी हूँ.
न तो मैं ज़िन्दगी से परेशां हूँ
न मौत से डरता हूँ.

मुझे दिक् है अपने आप से
ऐसे अरमानों से जो चाह कर भी
मेरे नहीं हो सकते

मुहब्बत

एक दिन ऐसा भी आएगा?
जब दुनिया से मुहब्बत गायब हो जायेगा.

अब कहाँ कोई जान देने की बात करता है?
कहाँ फ़ना होने की फितरत है किसी में?
झूठा है जो दिलो- जान से चाहने की बात करे.

अब मुहब्बत किताबों में रह गयी है
और वो किताबें लाइब्रेरी के किसी कोने में
सड़ रहीं हैं.

अब मुहब्बत मतलब बस 'आई लव यू'.

तन्हाई

आज फिर
मैं हूँ और मेरी तन्हाई
ख़त्म हो गया दो पल का हंसी- मज़ाक
इन दोस्तों का हुल्लड़
फिर लब सिल गए
फिर छा गयी खामुशी.

बहुत देर से है कोई बात
जो लब तक आ आ कर लौट जा रही है.

आवाज़ दो

जब दोस्तों में हो जाये कोई तनहा
जब तनहा हो तन्हाई
जब तन्हाई में उठे हूक
जब हूक से हो घबराहट
जब घबरा कर बढें धड़कनें
जब धडकनों में सजे सुर कोई
जब इन सुरों पर कोई लिखे गीत
जब कोई सुन सके वो गीत
जब सुनकर दे आवाज़ मुझे.

है भी कोई जो मुझे आवाज़ लगाये?

इसे भी सुनिए

नगमें

कुछ नगमें चुनकर रक्खे थे,
तुम्हारी खातिर

आज देखा तो ज़ंग लग चुके थे.

ख़्वाब

आँखों में कीचड़ की तरह लगे थे
उँगलियों से साफ़ कर दिया

चंद अधूरे ख़्वाब थे.

तार्रुफ़
तार्रुफ़ करायेंगें कैसे
हमे देखते ही शर्मा जाते हैं
उनको जानने वाले लेकिन
जान जाते हैं कि हम उनके क्या लगते हैं.

कैमरा

यूँ कैद कर लेता हूँ चेहरों को, कैमरे से
सफ़ेद कागजों पर
ग़ज़लों सी शक्लें बनतीं हैं

आह

चाँद भी आहें भरता जो तुम नहीं आते नज़र
इस हुस्न के अकेले हम ही हिस्सेदार नहीं

मज़ाक

हुआ यूँ की एक दिन खुदा मिल गया
अपनी वजहे बर्बादी पूछा तो कहने लगा, हंस के

'मैं तो मज़ाक कर रहा था.'

उलझन

उनके प्यार जताने का तरीका भी अजीब है
इनकार में हंसते हैं
इकरार में मुस्कुराते हैं

राहे शौक़ १

राहे शौक़ दो तरफ जाता है
एक तरफ खाईं है
एक तरफ कुँआ.

शायर

सुनाकर बोर न कर दूं
तो मैं शायर नहीं
मैं बुरा नहीं, मैं इतना लिखता हूँ

ख्याल

जी में आया बाहों में भर लूं
जुल्फों में फेरकर उंगलियाँ, चूम लूं
मगर यारों,
ख्याल तो ख्याल ही है.


हम फिर आयेंगें नगमों की बारिश लेकर
थोडा सब्र रखो, हज़रत

१ प्रेम मार्ग

Wednesday, July 8, 2009

काश

काश कि होते हम
तुम्हारे कानों की बालियाँ
गुनगुनाया करते सरगोशी में

काश कि होते हम
तुम्हारी आँखों का काज़ल
पलकों में रहते साथ साथ

काश कि होते हम
तुम्हारे होठों की लालिमां
अल्फाजों में रंग भरते सिन्दूरी

काश कि होते हम
तुम्हारे माले का मोती
धड़कने सूना करते साफ़ साफ़.

काश कि होते हम
तुम्हारे आस्तीन का कपडा
गुदगुदाया करते सहलाकर

काश कि होते हम
तुम्हारे पायल के घुंघुरू
चाल पे छेड़ते साज़ नई

काश कि होते हम
तुम्हारे कमरे का बल्ब
निहारा करते सोते वक़्त

काश कि होते हम
कुछ तो तुम्हारे

नयी परिभाषा

इंट्रोस्पेक्शन

कोई ख्याल नहीं गुजरता
कुछ करने का आहंग फ़ौत हुआ
कंधे से चूरे उड़ रहे थे तसव्वुर के

बहुत दिनों बाद ठीक से नहाया था.


बोम्ब ब्लास्ट


शोर बहुत हो रहा था, रेल के डब्बों में
किसी को बस गुस्सा आ गया
और पटाखे फोड़ दिया

खामुशी में शक्लें भी पहचानी नहीं जातीं.

भूख

हमारे वालिद अनाज उगाते हैं
हमने तसव्वुर के पेड़ लगायें हैं
कोई खरीदार नहीं मिलता

लगता है आज भी भूखों सोना पड़ेगा.

दंगे

माथा पीट रहा था खुदा
उसके दो बच्चों ने
एक दूसरे को मार डाला था

उसे भी इल्म हुआ उसके दो नाम भी हैं.

बलात्कार

गया वो जमाना जब लोग
दिल चुराया करते थे

अब तो सरहतन डाके पड़ते हैं.

भ्रष्टाचार

पुल ही कमजोर था, गिरता क्यूँ नहीं
उसने कहा था

थोडा तुम खाओ थोडा हम खाएं.

गरीबी

मैं गरीब क्यूँ हूँ क्या बताऊँ
खुदा ने पूछकर तो
नेमते नहीं दी थी

गन्दगी

मच्छरों के घरों में
आदमी रहते थे
कुछ मलेरिया से मरे
कुछ तोय्फायेड से.

Monday, July 6, 2009

कुछ मेरे अपने

हुस्न होगा वो ज़माने के लिए
अपने लिए तो यारों
मौत का सामान था.

मुज़र्दी में कटी तमाम ज़िन्दगी
उम्मीद बाकी थी मौला
मय्यत में लाएगा रिश्ता कोई.

क़यामत के दिन जब पूछेगा खुदा
मरने का सबब
हसीनों पे इल्जाम देंगें.

फैसले से मुहब्बत करना होता
तो तुमसे ही क्यूँ?
इस ज़माने में हसीं और भी हैं.

सुना है लवों को लवों से टकराओ
तो आग निकलती है
अब यही आजमा कर देखना है.

तुम आये ज़िन्दगी में तो ख्याल आया
हम तनहा ही अच्छे थे, यारों.

ख्वाहाँ थे हम उसकी आँखों के जाम के
देखो ज़रा खुदाई
पानी भी नसीब नहीं हुआ.

Sunday, July 5, 2009

शर्म तुमको मगर नहीं आती

कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती

मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती

है कुछ बात कि चुप हूँ
वरना क्या बात कर नहीं आती

हम वहाँ हैं जहां से हमको भी
कुछ हमारी खबर नहीं आती

काबा किस मुंह जाओगे 'गालिब'
शर्म तुमको मगर नहीं आती.

- गालिब

कुछ मनपसंद शेर

अपनी वजहे बर्बादी सुनिए तो मज़े की है
ज़िन्दगी से यूँ खेले, जैसे दूसरे की है.

- जावेद अख्तर

क्या जानूं लोग कहते हैं किसको सुरूर- ए- कल्ब
आया नहीं ये लफ्ज़ तो, हिंदी जुबान के बीच.

बेखुदी ले गयी कहाँ हमको
देर से इंतज़ार है अपना.

सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख्मे- ख्वाहिश दिल में तू बोता क्या है?

- मीर

Friday, June 26, 2009

दिल की बात

कौन सुनता है तेरे दिल की बात
दिल तो बेकस है बेजुबान.

वो जिसे चाहता है दिलोजान से तू
देख तो कितना है बदगुमान.

ग़म -ए- इश्क ने मारा जिसको भी
होता कैसे नहीं लहू लहान.

चल दिया उकता कर दिल से एक दिन
बुझ गया है अब चिराग- ए- जहान.

भीड़ में खो गया हूँ ऐसे
जिस्म से रूह हो जैसे अनजान.

Thursday, June 25, 2009

बारिश का मज़ा

बारिश में मज़ा कहाँ
अगर छत छूती हो,
घुटने तक पानी में
घर से बाहर जाना हो,
ट्रैफिक में कार फँसी हो,
या पहिया पंचर हो जाये
आपकी दुपहिये का,
कीचड़ भरे सड़क पर
लगभग दौड़ते हुए
बस पकड़नी हो,
या एक बहुत जरूरी मीटिंग में
जाना हो.

बारिश का मज़ा तो तब है
जब घर बैठे
खिड़की से मुसलाधार बारिश का
नज़ारा देखा जाए
धुली धुली वादियों के बीच
गरमा गरम पकौडे के साथ चाय का
आनंद लिया जाए.
या फिर
उनकी बाहों में बाहें डाले
भींगने का लुत्फ़ उठाया जाए.

Monday, June 22, 2009

बेतरतीब ख्वाब

आप यकीं नहीं करेंगें
मगर यह सब सच है.

शाहरुख़ से यह मेरी दूसरी मुलाकात थी
काफी बातें हुईं
इधर उधर की
काफ़ी की चुस्कियां लेते लेते
एक दिन पहले ही
आमिर और सैफ
मेरे घर आये थे
कारन और अजय के घर
मैं खुद हो आया था
अजय ने न्यासा को
मेरी बाहों में थमा दिया था
इतनी नाज़ुक और प्यारी थी कि
उसे छूने से भी डर लग रहा था
मैंने उसके गालों को
हलके से चूम लिया
और वो चुमते ही सो गयी
घंटों सीने से चिपकाये
मैं गुनगुनाता रहा


माधुरी के साथ मैंने
Accountancy की classes ली है
मनीषा और जूही के साथ
कई बार
सैर सपाटे पर गया हूँ
गोविंदा से धक्का मुक्की हो चुकी है
जाने किस बात पर.
भंसाली से कई मुद्दों पर बहस हो चुकी है
सुन्नी देओल ने एक बार
मेरी जान बचायी थी
एक काले नाग को मार कर
कितनी फिल्में बना चूका हूँ अब तक
अब तो पूरा बॉलीवुड जानने लगा है मुझे


अनिल और मुकेश ने तो पूरी कोशिश कि थी
मेरी जान लेने कि
दरअसल अनिल को लगा था मैं
मुकेश का आदमी हूँ
और मुकेश को लगा मैं अनिल का हूँ

एक दफा जेल भी जा चूका हूँ
घोटाले का मामला था
छ लाख गबन हुए थे
चार रबिन्द्रनाथ
बाकी मेरे हाथ आये थे
कसूर दरअसल
टैगोर साहेब का ही था
मैं तो अनायास ही
मदद करने चला गया था.

आप भी जान लीजिये
क्या क्या गूल खिलाये हैं मैंने
सपनों में कुछ भी कर लेने की
बड़ी सहूलियत होती है.

पडोसी

मैंने उनसे
कभी बात नहीं की थी
उन्होंने भी कभी
कोशिश नहीं की
हमारी नज़रें रोज मिल जातीं थीं
सुबह शुबह, दोपहर या शाम में
जब भी
खिड़की से बहार झांकता
वो मुझे देखते
मैं उन्हें देखता
और एक तरह से
अनजान बनकर भी
हम एक दुसरे को
जानने लगे थे

सुबह सुबह
अखबार लेकर बैठे रहते
घंटों ख़बरों के बीच
उलझे रहते
जब भी खिड़की से झांकता
सबसे पहले
उनका ही चेहरा दिखता

लेकिन वो चेहरा
अब कभी नहीं दिखेगा
क्यूंकि सुना
आज अचानक
उनके दिल की धड़कन रुक गयी
और ख़त्म हो गया
एक अस्तित्व
एक वजूद
एक ही पल में.

जिस बिस्तर पर वो सोते थे
जूते जो पहनते थे
जो घडी अक्सर
उनकी कलाई में लटकी रहती
जिसे वो अपना समझते थे
दरवाजे के बाहर
लावारिस पड़ी है
शायद, किसी को दान दे दिया जायेगा.

हम अजनबी थे
नाम तक नहीं जानते थे
कभी बात तक नहीं की थी
पर आज
उनकी कमी सी खलती है
बात करने को जी चाहता है. . .

Wednesday, June 17, 2009

ग़ालिब के कुछ चुनिन्दा शेर

ज़िन्दगी जब अपनी इस शक्ल से गुजरी 'गालिब'
हम भी क्या याद करेंगें कि खुदा रखते थे.

उग रहा है दरो- दीवार से सब्ज़ा, 'गालिब'
हम बयाबान में हैं और घर में बहार आई है.

तुने कसम मयकशी की खायी है 'गालिब'
तेरी कसम का कुछ ऐतबार नहीं.

इश्क ने 'गालिब' निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के.

इश्क पर जोर नहीं, है ये वो आतिश 'गालिब'
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने

जब तवक्को१ ही उठ गयी 'गालिब'
क्यूँ किसी का गिला करे कोई

होगा कोई ऐसा भी कि 'गालिब' को न जाने
शायर तो वो अच्छा है, पे बदनाम बहुत है.

जी ढूंढता है फिर वही फ़िरसत के रात दिन
बैठे रहे तसव्वुरे- जानां२ किये हुए.

तू मुझे भूल गया हो तो पता बतला दूं
कभी फित्राक़ में तेरे कोई नखचीर भी था.

पूछते हैं वो कि गालिब कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या?

गम नहीं तुने बर्बाद किया
गम यह है कि बहुत देर में किया.


१. उम्मीद २. महबूब के ख्याल

Monday, June 8, 2009

लिफाफे

पर्वतों के उरोजों से जब झांकता था सूरज
कल कल करती झरने की जब बहती थी नाक
हवाएं जब सरगम गाती थी और
पत्तियों की सरसराहट गुदगुदाती थी
चद्दर में लिपटी रातें
भट्ठी में ठिठुरती बाहें अंगरायियाँ लेती थी. . .

इन बहुमंजिली इमारतों के दरम्यान
दफ़न हैं जिंदा लाशें
जहाँ न सर उठाने की इजाज़त है
न ही चाहत
जहाँ धक्कों की लत पड़ चुकी है

अपना भी लिया इस शहर को लेकिन
कभी कभी बिलकुल ही
पराया लगता है.
लगता है मैं इसका नहीं
मैं यहां का नहीं.

अब भी गूंजती हैं कहीं किलकारियां
बाकी है बुझा बुझा सा एहसास
और बचपन की कुछेक तरोताजा यादें
फटे लिफाफे में

Thursday, April 9, 2009

रिमिक्स

यह नयी नसल है.
जिसे मौसिकी और ग़ज़ल में भी
डिस्को चाहिए.
इसे सुर और ताल की समझ नहीं
न ही समझना चाहती है.

कानों में दिन रात
इअर फ़ोन घुसाए,
जो बहरी होने पर आमादा है,
रेडियो जोकी की बकवास
और उलजलूल गानों में
मनोरंजन ढूंढती है.

मियां की मल्हार, राग भैरवी या दरबारी.
हर्मोनिअम और तबला
इसकी समझ से परे है
फास्ट फ़ूड की नसल है
मौसिकी भी वैसी ही चाहिए
यानी 'जंक म्यूजिक'.

Tuesday, April 7, 2009

बरसात

रात इक बात आई थी
कहने ख्याल से
कि यादों के जंगल में
आग लगी है,
अश्कों का पता पूछ रही थी.

तब आँखों में चुभ गया
इक तिनका सा ख्याल
और पानी बरस पड़ा.

नयी पीढ़ी

बातों की कद्र नहीं
जज्बातों की कीमत नहीं
हर चीज़ पैसों में तुलती है.
दिलों में कहीं कहीं
इंसानियत मिलती है.

इस नयी पीढ़ी को
न आस्मां है, न जमीन
फिर भी गुरूर है
जाने किस बात से?

यारों, इन्हें बताओ
यह वक़्त कभी
किसी का सगा नहीं हुआ.

Monday, April 6, 2009

चाँद और मैं

चाँद और मैं
दोनों ही तनहा हैं.
वो उधर आस्मां में,
मैं इधर जमीन पर.

कभी दरख्तों१ से
तो कभी दरीचों२ से
झांक कर देखता है मुझे
कुछ कहना चाहता
शायद
पर कह नहीं पता है
शायद.
उसकी आँखें कहती हैं
चेहरा बताता है,
बहुत ग़म है उसे.

वैसे तो इस शहर में
हजारों घर हैं
लाखों खिड़कियाँ हैं
करोड़ो बसते हैं उनमें
लेकिन
उन बाशिंदों को
कभी चाँद नहीं दिखता
उन्हें फुर्सत भी नहीं देखने की.
सूरज की गर्मी को
लोग बर्दाश्त कर लेते हैं
मगर इसकी नर्म चांदनी को
महसूस नहीं कर पाते.

तारे भी कभी चाँद रहे होंगे
डर है कहीं यह आखिरी चाँद भी
ख़त्म न हो जाये.

१. पेड़ २. खिड़कियाँ

यूँ ही एक दिन

आंसूओं में पिरोये था
कुछ ग़म,
धडकनों में गुथे थे
कुछ ख्वाब,
लबों से चिपकी थीं
चंद अनकही बातें,
आँखों में अटकी थीं
जानी पहचानी तसवीरें,
सीने में दफन थीं
कई यादें.

जर्जर उम्मीद की दीवारें
ढह रही थीं.
चेहरे पर खामुशी की एक
मोती पर्त चढ़ चुकी थी.

थका हुआ था बहूत,
नींद भी आ रही थी.
फिर यूँ ही एक दिन,
सो गया. . . .

अजीब

उलझी हुई सी ज़िन्दगी में
पत्थर गिरा एक चाँद सा
फिर सुहानी हो गयीं शामें

गिर पड़ा एक बूंद सा
दरिया मेरे आँख से
और एक शहर डूब गया

आसमान को जोतकर
फसल तो उगा ली
पर जमीन बंज़र हो गयी.

खिड़कियों से झांक कर
देखा ख्याल ने
तो मुर्दे सो रहे थे

मैंने जो लिखा है
वो अजीब सा नहीं है
मगर जो अजीब है
वो अजीब सा लगता नहीं है.

मसलन, इस देश में
शराब मिलता है पानी नहीं
गधे समझदार हैं इंसान से
बन्दूक सस्ता है रोटी से
मज़हब बड़ा है मुहब्बत से.

एक कविता ख़ास तुम्हारे लिए

जब हवा महकने लगे
कोई नदी उनफने लगे
घटा भी बरसने लगे
समझो तुम गुनगुनायी हो.

कहीं कोयल कूकने लगे
पंछी वन में चहकने लगे
दरो दीवार चमकने लगे
समझो तुम मुस्कुरायी हो.

रुत में रंग गहरा हो जाये
सावन और सुनहरा हो जाये
सख्त चांदनी का पहरा हो जाये
समझो तुम घबरायी हो.

राही जब रास्ता भूले
मस्त पवन झूला झूले
खेतों में सरसों फूले
समझो एक ली अंगड़ाई हो.

खुदा ने बेहद सोचा होगा
भरपूर वक़्त लगाया होगा
कुदरत की हर चीज से
चुनकर तुम्हें बनाया होगा
बेशक
सबमें तुम समायी हो.

Friday, April 3, 2009

मस्ती के वो दिन

पीपल के पेड़ की छाँव,
बरगद के झूले,
वो नशीला स्वाद गन्ने के रस का.
अमरुद का कसैलापन,
वो स्कूल से भाग कर
फिल्म देखने का आनंद.

धूप में दिनभर की मस्ती,
चोरी के कच्चे आम
और हरे चने का नाश्ता,
चोरी पकडे जाने का डर
बाबूजी की मार, फिर माँ की दुलार.

बारिश में भीगना,
मिट्टी की सोंधी- सोंधी खुशबू,
गरम- गरम गुड का चटकीला स्वाद
पत्थरों से इमली तोड़कर खाना
और उस जीत का एहसास.

वो अल्हड़पन, वो आज़ादी.
आज के शहर की पैदावार
क्या समझेगी और क्या जानेगी.

हिंदी

यह अनायास ही नहीं हुआ.
हिंदी मेरे रग रग में
पहले से ही थी.
यह तो मैं ही पहचान नहीं पाया.

लेकिन आज यह जान गया.
हिंदी महज एक जुबान नहीं.
यह मेरा अस्तित्व है, अभिमान है.
इसके बिना तो मैं अधूरा सा था.
लेकिन क्यूँ नहीं समझा अब तक?

क्यूँ मैं अंग्रेजियत की नक़ल में इतना
व्यस्त था की खुद को भूल गया था?
क्यूँ शर्म सी आने लगी थी
हिंदी बोलने में?
क्यूँ यह सब गवारपन लगने लगा था?

हॉलीवुड कलाकारों के नाम
जुबान पर होने में फक्र महसूस होता था.
अंग्रेजी गाने रटने की नाकाम कोशिशें भी की
'ब्रांडेड' कपडे पहनने के शौक ने,
अच्छे खाने पीने के आदत ने
मुझसे मेरी सादगी छीन ली.

दरअसल, एक अंधी दौड़ में भूल गया
जाना कहाँ था?
अब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो
सारे चेहरे अजनबी से लगते हैं.
कोई भी अपना सा नहीं.
सब तो पीछे छोड़ आया
बहुत पीछे.

दोस्त

तुमने कहा कुछ लिखो
ज़िन्दगी के बारे में
तुम्हारी, अपनी और
सबकी ज़िन्दगी के बारे में.
तो सोचना शुरू किया पर
समझ नहीं पाया
शुरू कहाँ से करुँ ?

मुझे अपनी ज़िन्दगी से
हमेशा से शिकायत रही
अकसर यही सोचता कि आखिर
यह मेरे साथ ही क्यूँ?

मैं अपने ग़म लेकर घंटो बैठा रहता
रोता रहता, कोसता रहता
खुदा को, अपने नसीब को.
मगर सबके ग़मों को देखा
तो यह जाना और महसूस किया,
मुझे इतना रोने का हक नहीं.

उन अपाहिजों में मैंने पायी
एक चाहत जीने की
एक ख़वाहिश जूझने की
तमन्ना जीतने की.
और मैं ?

ग़म की कुछ बूँदें क्या पड़ीं
मैं ठिथूरने लगा,
दर्द से कंपकपाने लगा.
जबकि देने वाले ने मुझे
सब कुछ बख्शा
सही सलामत.
सच. मैं डर गया था
ज़िन्दगी से.

मैं तो टूट चूका था
यह तो तुमने एहसास दिलाया
की मैं इंसान हूँ.
मुझमें भी एक आग है
तूफ़ान है.
मैं भी टकरा सकता हूँ
मुश्किल हालातों से
शैतानी ताकतों से
अपनी कमजोरियों से, नाकामियों से.

सच.
मैं भी जीत सकता हूँ
मैं भी जी सकता हूँ
एक मुकम्मल सी ज़िन्दगी
क्यूँकि मेरे पास है
एक खूबसूरत दोस्त
जो लगा देता आग
हर हाल में जीतने की
जो जगा देता है प्यास
जिन्दा रहने की.

अब मैं जीना चाहता हूँ
मुस्कुराना चाहता हूँ
इस दोस्ती के लिए.

जूनून

ख्वाब जो मैंने देखा था
और किसी का था.
जिन राहों पे चला था मैं
वो मुफलिसी का था.
इरादा तो जीने का था न कि
खुदकुशी का था.
मगर
क़दमों पे न लगाम था,
न खुद को खुद की
खबर ही थी.

तमन्ना

पत्तियाँ ख़्वाबों की
शाखों से गिर गयीं
अश्कों में ढलकर
आखों से गिर गयीं.
बिखरे हैं आँगन में
तिनके तमन्नाओं के
जरा संभलकर चलो, दोस्त
जमीं गीली है.

कभी कभी

कभी कभी
हम जो चाहते हैं,
वो नहीं होता.
जो पाना चाहते हैं
वो नहीं मिलता.
जितना मिलता नहीं,
उससे कहीं ज्यादा खो जाता है.

ज़िन्दगी को
जितना ही पकड़ना चाहते हैं
वो उतना ही दूर भागती है.
हम चाहें न चाहें
यह ज़िन्दगी कट ही जाती है
थोडी मजबूरी से, कुछ समझौतों से.
और एहसास भी नहीं होता
की कब ख़त्म हो गयी
ज़िन्दगी.

कभी कभी
ज़िन्दगी हमें जीती है.

रिश्ते

पहले जिन रिश्तों में
गर्माहट थी, उमंग थी
अंतरंगता और गर्व की भावना थी
त्याग और सम्मान था
वेग और प्रवाह था
अब सिर्फ
रिश्ते बचे रह गए
उनकी ऊष्मा गायब हो गयी.
सभी भावनाएं क्षीण हो गयीं
रिश्ते
छिछले और खोखले हो गए.