आंसूओं में पिरोये था
कुछ ग़म,
धडकनों में गुथे थे
कुछ ख्वाब,
लबों से चिपकी थीं
चंद अनकही बातें,
आँखों में अटकी थीं
जानी पहचानी तसवीरें,
सीने में दफन थीं
कई यादें.
जर्जर उम्मीद की दीवारें
ढह रही थीं.
चेहरे पर खामुशी की एक
मोती पर्त चढ़ चुकी थी.
थका हुआ था बहूत,
नींद भी आ रही थी.
फिर यूँ ही एक दिन,
सो गया. . . .
ज्योतिकृष्ण वर्मा
8 hours ago

No comments:
Post a Comment