Friday, October 30, 2009

ज़िन्दगी

क्या मिला, क्या खो दिया
ज़िन्दगी के इस सफ़र में. . .

किसे रुसवा किया, धोखा दिया
किसको हंसाया, किसको रुलाया
किसे गम दिया, किसको ख़ुशी
कितने वादे किये झूठे.

आओ करें इसका हिसाब.

कितने आंसू रोये छुप छुप के
सिसकियाँ भरी, गश खाए
किस बात ने गुदगुदाया
क्या सोचकर आँखें छलकीं.

इस पर लिखें कोई किताब.

कितने चेहरे जो याद हैं?
पूछो दोस्तों के नाम
कभी हुआ दुआ सलाम या
कह दिया अलविदा फिर मिलेंगें.

कभी पूछा क्या हाल है जनाब?

काश कि कभी सर उठाकर
देखा होता आसमां का रंग
हवा से खुशबुओं को छानकर
चखा होता किसी दिन.

मिल गया होता हर जवाब.

Thursday, October 15, 2009

हमसफ़र

एक जमाना वो भी था
मुझको देखे बिना आराम ना था

मुझसे बातें करते नहीं थकते थे
दिल को बहलाना आसान ना था

उन्हें हर बात से फ़िक्र होती थी
अपनी हालत का कुछ ख्याल ना था

हरेक बात पे कसम खाते थे
खुद पे इतना कभी गुमान ना था

रास्ते में घंटों राह ताकना
गोया उन्हें और कोई काम ना था

आज जब मुंह फेर कर वो चले गए
मैंने जाना फिजा का रुख, बदल गया

वो कोई ख़्वाब समझ के भुला बैठे
शायद नया हमसफ़र मिल गया.

Wednesday, October 7, 2009

महत्वकांक्षा

नारी की तरह जीभ भी
चंचला और लालची होती है
असल में वही फसाद की
सारी जड़ रही है.
वरना पेट को
स्वाद से क्या मतलब?
पेट तो किसी भी चीज़ से
भरा जा सकता है.

मगर आदमी के अन्दर
अगर बेहतर खाने की इच्छा ना हो
कोई अभिलाषा ना हो
महत्वकांक्षा ना हो
फिर तो वह जानवर सरीखा ही है.
ज़िन्दगी में रंग ना हो
तो जीने का कहाँ आनंद?
अतएव
जीभ बिना पेट के होने का
कोई लाभ नहीं.

अफ़सोस आजकल
बिना जीभ वाली नस्लें ही
पैदा हो रहीं हैं.