यह अनायास ही नहीं हुआ.
हिंदी मेरे रग रग में
पहले से ही थी.
यह तो मैं ही पहचान नहीं पाया.
लेकिन आज यह जान गया.
हिंदी महज एक जुबान नहीं.
यह मेरा अस्तित्व है, अभिमान है.
इसके बिना तो मैं अधूरा सा था.
लेकिन क्यूँ नहीं समझा अब तक?
क्यूँ मैं अंग्रेजियत की नक़ल में इतना
व्यस्त था की खुद को भूल गया था?
क्यूँ शर्म सी आने लगी थी
हिंदी बोलने में?
क्यूँ यह सब गवारपन लगने लगा था?
हॉलीवुड कलाकारों के नाम
जुबान पर होने में फक्र महसूस होता था.
अंग्रेजी गाने रटने की नाकाम कोशिशें भी की
'ब्रांडेड' कपडे पहनने के शौक ने,
अच्छे खाने पीने के आदत ने
मुझसे मेरी सादगी छीन ली.
दरअसल, एक अंधी दौड़ में भूल गया
जाना कहाँ था?
अब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो
सारे चेहरे अजनबी से लगते हैं.
कोई भी अपना सा नहीं.
सब तो पीछे छोड़ आया
बहुत पीछे.
मंत्रमुग्धा / कविता भट्ट
2 years ago
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