Tuesday, November 16, 2010

फर्दबातिल

तुम रुला लो मुझे
हाँ मगर
इतना नहीं
कि रो रो के फिर से
संभालना भी मुश्किल, हो जाये

यूँ तो मौत से डर
लगता नहीं पर
मर मर के मालिक
जीने की आदत, हो जाये

अगर तू खुदा है
खुदा ही रहना
इंसान बनने की
कोशिश ना करना
कशिश है मज़ा है
रंजो ग़मों में
खबरदार तुझको, इसकी ना लत, हो जाये

मजबूरियों का
तमाशा बनाकर
मजे लूटना तुम
अगर हार जाऊं, कभी गिड़गिड़ाऊँ
मुंह फेरना तुम
तुझे इल्म हो और
तेरी दिल्लगी पे, नदामत१, हो जाये

१. शर्मिंदगी

Saturday, July 17, 2010

जब मैं उदास होता हूँ

मैं जब उदास होता हूँ
आस्मां की तरफ देखता हूँ
उसके फैलाव और ऊँचाई को
मापता हूँ
उसकी आखों में झांकता हूँ
और महसूस करता हूँ
जैसे उसकी बाहें बुला रहीं हों मुझे.

जब मैं उदास होता हूँ
समंदर की तरफ देखता हूँ
उसकी लहरों को, उफान को
वेग और प्रवाह को
और महसूस करता हूँ
धडकनों में
उठते हुए तूफानों को.

जब कभी भी उदास होता हूँ
देखता हूँ चमकते हुए तारों को
हर हाल में
टिमटिमाते हुए
अंधेरों में
झिलमिलाते हुए
और महसूस करता हूँ
आँखों में
उम्मीद की एक नई किरण.

Friday, July 9, 2010

नासिख१

मुझ जैसे मुहर्रिर१ की
ज़िन्दगी भी कोई ज़िन्दगी है?
क्या हासिल हुआ कलम घिस घिस कर?
खिस्सत२ की ज़िन्दगी
जिया मैं
खैरात पे बसर किया
फांके मारे हैं दिनों तक
ग़ालिब मुझे तो
दो घूँट भी नसीब नहीं हुई.

तकरीक३ ना हुआ कोई
ना किसी का खूँ ही खौला
ना पशेमानी४ आई
जो भी लिखा, बेकार हुआ.

बुत सा पडा हूँ
इस नाज़ेब५ और
नाचाक६ सी दुनिया में
नाचीज़ की तरह
कोई दर्यां७ हो तो
बताओ भाई
ढूंढ दो कोई हमदर्द मिरा
जो तहमीद८ करे
मेरी खातिर
जो तस्हीह९ कर दे
मेरी तलफ१० होती
यावा सी ज़िन्दगी.

एक मौक़ा और मिले तो
तरमीम११ भी कर लूं
जी लूं उनकी तरह भी;
इस तर्रार१२, फ़रऊन१३ दुनिया,
जो फ़वायद१४ की बुनियाद पर टिकी है
के किसी काम नहीं रहा.

बशरियत१५ नहीं रही
दोज़ख१६ क्या जन्नत क्या.

मायने-
१ लेखक, २ कंजूसी, ३ उत्तेजित, ४ शर्म, ५ बेमेल, ६ बेमजा, ७ इलाज़, ८ ईश्वर से प्रार्थना, ९ दुरुस्त, १० बर्बाद, ११ सुधार,१२ तेज, १३ जालिम, १४ फायदों, १५ इंसानियत, १६ नरक

Saturday, July 3, 2010

ज़िन्दगी क्या है

कुछ लफ्ज़ ऐसे होते हैं
जिन्हें बयाँ कर पाना
उनके बारे में कुछ
कह पाना
बेहद मुश्किल होता है
मसलन एक लफ्ज़ है
ज़िन्दगी!!

ज़िन्दगी
लम्हों और एहसासों के बीच का
एक अजीबोगरीब रिश्ता है
अमीक रब्त है उनका
जैसे हर लम्हा अलग है
एक दूसरे से
वैसे ही
हर एक एहसास जुदा जुदा है
एक दूसरे से
कभी जब सोचता हूँ
कि कितना कुछ लिखा है
मैंने इस ज़िन्दगी के बारे में
तो हर बार लगता है
अभी कितना कुछ है लिखने को
बहुत कुछ बाकी है अभी
जिसे सोचा तक नहीं
अभी देखा ही कहाँ ज़िन्दगी को
ठीक से.

ज़िन्दगी एक ख्याल है.
ख़्वाब है.
अनसुलझी पहेली या अधूरी रह गयी
जरूरत
जज्बात, मौसिकी या एक खूबसूरत ग़ज़ल?
यादों की हरी डालियों पर
बातों की कोमल पत्तियाँ है ज़िन्दगी
आसूँओं की बरसात में
धुली उन पत्तियों की लताफत है ज़िन्दगी
वक़्त की रफ़्तार से
तेज़ है ज़िन्दगी
नाज़ुक कभी चट्टान है ज़िन्दगी
दरिया के पानी की तरह मगरूर है
ज़िन्दगी
खुदा की सनक है
इंसानी दुआ है ज़िन्दगी
जहां समझा शुरुआत है
वहीँ ख़त्म मिली है ज़िन्दगी
ज़िन्दगी
तू ही बता
क्या है
ज़िन्दगी!!

इंतज़ार

बड़ी देर तक
खिड़की से झांकता रहा
रोज की तरह
कि कोई गुजरेगा
इन रास्तों से होकर
जिसके इन्तजार में
बरसों नहीं गुजरे
वो यूँ ही किसी दिन
गुजरेगा इधर से
और पुकार कर कहेगा
"किसकी राह देख रहे हो?"

इस घर की
आबोहवा को है
इन दीवारों को है
उसका इन्तजार
कि वो आयेगा
आकर
बदल देगा मेरा जहां
भर देगा खुशियों से
पूरा मकान
और मुस्कान
वीरान सी ज़िन्दगी में.


ये इन्तजार
अब आदत बन गयी है

माँ- बाप

पिछले जन्मों का फल था
जो ऐसे घर में पैदा हुआ
दोस्तों, मेरे माँ बाप
मुझसे बेइन्तेहाँ प्यार करते हैं
और मेरे लिए
कुछ भी कर देना
उनके लिए बहुत ही सहज है
पिताजी कहते हैं
कि मैं अपने बेटे के लिए
खुद को नीलाम भी करना पड़े
तो करूंगा
भीख भी मांगना पड़े
तो मागूँगा

मिठाईयां, नमकीन, चाकलेट
कुछ भी लाते हैं
तो चाहते हैं कि सारा का सारा
बेटा खा जाए
जैसे मेरे खाने से
उनका पेट भी भर जाएगा
क्या लोजिक है
तो ऐसे हैं मेरे माता पिता
तबियत खराब हो जाए
तो रात भर ऐसे
परेशान हो जाते हैं कि पूछो मत
माँ को आंसूओं की तो जैसे
कोई कदर ही नहीं
जब तब बहा देती है
कितना प्यार करते हैं वे मुझसे
कह पाना मुश्किल है.

और मैं कैसा बेटा हूँ
बारहवीं पास करने के बाद
घर त्याग दिया
अब घर मेहमान बनकर जाता हूँ
अच्छी नौकरी कर सकता था
माता पिता की मदद कर सकता था
लेकिन तभी याद आया
कि मुझे तो कुछ और ही करना है
कि मेरा एक सपना भी है
कि मुझे नौ से पांच की
नौकरी तो नहीं करनी है
इसलिए
मुंबई चला आया
उन्हीं सपनों की खातिर.

अब यहाँ अकेले रहता हूँ
इधर उधर खा लेता हूँ
बीमार होता हूँ
तो कोई पूछने नहीं आता
अब आज ही कर्फियू लगा था
कुछ खाने निकला था कि
पुलिसवाले ने ठोंक दिया
काफी जख्म हो गया है
दर्द बढ़ता जा रहा है
चला नहीं जा रहा है
घर में कुछ खाने को नहीं है
कोई एक रोटी देने वाला नहीं
घर में पंखा भी नहीं
गर्मी से जख्म और बढ़ जाता है
इधर
रात में चूहे परेशान करते हैं
सोने नहीं देते
ठीक सिरहाने
बिलों में खुदाई अभियान चलाते हैं
चूकिं चटाई पर सोता हूँ
चींटीयाँ काट काट कर
बुरा हाल कर देतीं हैं
फिर भी यारों
नींद आ ही जाती है
थोड़ी मशक्कत के बाद.

चाहता तो
एक आराम की ज़िन्दगी जी सकता था
क्योंकि मैं आम आदमी बनके
नहीं जीना चाहता था
इसलिए
सब कुछ सहा
उन चंद सपनों के लिए
क्या कुछ नहीं किया
सिर्फ इसलिए कि
उन सपनों को देख देख कर ही
मैं बड़ा हुआ
जिनके बिना मैं
अधूरा सा लगता हूँ
जिनके बिना ज़िन्दगी बेमानी सी लगती है
मालूम नहीं
क्या होगा उन सपनों का
हर पल इनके चलते
दुःख और दर्द सहते सहते
उब सा गया हूँ
सोचकर ही परेशान सा हो जाता हूँ
अगर ये सपने
सच नहीं हुए तो?
डर लगता है कहीं
मैं आम आदमी की तरह ही
ना मर जाऊं.

मेरे जैसे स्वार्थी बेटे से
इन अभागे माँ बाप को
क्या सुख?
उनकी खोज खबर लेने वाला
कोई नहीं
अब उनकी तकलीफ
फोन कर देने से तो
दूर नहीं हो सकती
इस उम्र में जबकि
उन्हें मेरी ज्यादे जरूरत है
बच्चों की फ़िक्र में ही
रातें काटने की
उन्हें आदत पड़ गयी है.


उन्हें अपनी फ़िक्र
जाने कब होगी?

Friday, June 25, 2010

बुरा दौर

कभी कोई पूछे अगर
कि मैंने क्या किया इस ज़िन्दगी में
तो मैं यही कहूँगा
कि मैंने
बड़े बड़े ख़्वाब देखे
जो कभी पूरे नहीं हुए.

मरता रहा दम- ब- दम
दर्द से बिलबिलाता रहा
लेकिन इस कमबख्त दिल ने
उम्मीद की डोर थामी रही
मुझे यकीन दिलाता रहा
और मैं यकीन करता रहा

जितनी ही मात मिलती
हौसला उतना पक्का होता रहा
तो क्या?
वो जले कागज़ की तरह उड़ते रहे
तूफानों में किश्तियाँ
डूबती रहीं
लाखों नशेमन उजड़ते रहे

हवाएं तेज़ तो हो जाएँ ज़रा
चिंगारियों को आग होते
देर नहीं लगती.

खिलौने

तुम चली गयी मगर
यादों के पुराने से
नन्हे नन्हे खिलौने दे गयी
कुछ अभी तक रंगीन हैं
कुछ बदरंग से हो चुके हैं
किसी की टांगें टूट चुकी हैं
किसी का सर
फिर भी मैं इनसे खेलता हूँ

मुझे सब याद आता है
वह लम्हा, वह दिन
वह तारीख, साल
कब ये तोहफे तुमने दिए थे
पता है
ये खिलौने
आज भी तुम्हारी
हूँ-ब-हूँ नक़ल करके
बताते हैं कि
कैसे तुम मुस्कुराती थी
शर्माती थी
तुम्हे गुस्सा बहुत आता था
और मेरा ज्यादातर वक़्त
तुम्हे मनाने में जाता था
ये सब तुम्हारी कमी का
एहसास नहीं होने देते
अक्सर इनसे खेलता हूँ
अब वक़्त यूँ ही कटता है

इस ज़िन्दगी में
सब कुछ कमाया
बहुत कुछ उड़ाया
ईश्वर मुझ पर ज्यादे ही मेहरबां रहे
इतना कि लोग
मेरी तकदीर से जलने लगे
कुछ बिगाड़ सकते तो जरूर बिगाड़ लेते
आलिशान बँगला
बैंक बैलेंस, रूतबा, शोहरत
खूबसूरत बच्चे
उनसे भी खूबसूरत
नाती पोते
किसी शख्स को और क्या चाहिए
ज़िन्दगी से?

मगर आज
तुम्हारी कमी खलती है
पहले भी खलती थी
लेकिन अब और ज्यादे खलती है
जब अकेला होता हूँ
सोचता हूँ
तुम साथ होती
तो इस खेल में
और भी मज़ा आता.

दौलत कमाने के नशे में
बहुत सारी बातें
बेमौत मर गयीं
दफन भी हो गयीं
और आज जब
रात भांय भांय करती है
जब दोपहर चुभती है
जब शामें
सिरहन पैदा करती हैं
तो सारी बातें एक एक करके
परेशान करने लग जाती हैं
मेरे साथ
एक कप चाय पीने के लिए
तब तुम तरसा करती थी
अब मैं तरसता हूँ.

तुम्हारे कुरवत के पलों को
याद कर करके
ज़िन्दगी के खट्टेपन में
मिठास घोलने की कोशिश करता हूँ
पर अब धीरे धीरे
यह भी अपना असर
छोड़ने लगे हैं
बहुत बोरियत सी होती है
एक ही खेल खेलते हुए
वैसे भी
कोई भी खेल
अकेले नहीं खेला जा सकता.

कल मैं
पूरे छिहत्तर का हो गया
मगर किसी को
मेरी सालगिरह कहाँ याद?
वैसे सालगिरह बच्चों की मनाई जाती है
लेकिन
कोई 'विश' तो कर ही सकता था!
तुम होती तो. . . . .

Wednesday, June 23, 2010

मेरे मरने पर

शायद किसी रोज
दिल की धड़कन रुक जायेगी या
किसी बम धमाके में फट जाऊं
या किसी हादसे में ही
मुझे इस दुनिया से विदा लेना पड़े

मेरे मरने पर
कितने लोग रोयेंगे
कहना मुश्किल है
शायद मेरी माँ, मेरी बहन
इन्हें रोने का बहुत अनुभव है
पिताजी और भाइयों को कभी
रोते नहीं देखा
इसलिए नहीं कह सकता.

कुछ करीबी दोस्तों को
थोडा सदमा लगे शायद
अरे मर गया?
बड़ी जल्दी टिकट कटा लिया
था तो भला चंगा?
कोई ख़ास फर्क नहीं पडेगा
फिर रोज की तरह
सभी आफिस जायेंगे
परिवार के साथ बैठ के
टी वी देखेंगे
और गाहे ब गाहे
कभी मेरा जिक्र आया तो
कहेंगे
"भला आदमी था, बेचारा"

मेरी अंतिम क्रिया के वक़्त
कोई नहीं आयेगा
और मैं यह दावे के साथ
कह सकता हूँ
वही पुराना
छुट्टी ना मिलने का बहाना
लेकिन उन्हें बहाने बनाने की
जरूरत नहीं पड़ेगी
क्यूंकि उनको इनविटेशन कार्ड तो
मिलेगा नहीं
वैसे भी
मैं लोगों की शादियों में
मुश्किल से जा पाता हूँ
उनको बदला लेने का
इससे अच्छा अवसर और कहाँ मिलेगा?

हिन्दू रिवाजों के अनुसार
मुझे जलाया जायेगा
शादी तो की नहीं
अवैध संतान भी नहीं
फिर भाइयों में
जो सबसे ज्यादा भावुक होगा
मुझे अग्नि देगा.
चन्दन की लकड़ी
सुना है बहुत महंगी आती है
जाहिर है
मितव्यता का पालन करते हुए
किसी शवदाह में
सस्ते में निपटा देना ठीक रहेगा
वैसे भी मैंने
अपने माँ बाप के
लाखों रूपये
फ़ोकट में उड़ा दिए हैं
वो भी बिना किसी उचित रिटर्न के.

सवाल उठता है
मेरी राख कहाँ फेंकी जायेगी?
सच कहूं तो कभी विदेश ना जाने का
बड़ा ही मलाल रहा है
और वहाँ नदियाँ, पोखर
बड़े साफ़ सुथरे होते हैं
खैर, छोडिये. . .
गंगा जमुना तो इतनी गन्दी हो चुकी हैं कि
वहाँ मेरी आत्मा को शान्ति नहीं मिल सकेगी.
मैं तो चाहूँगा
मेरी राख
मेरे गाँव के खेतों में छिड़क दिए जाएँ
उन्हीं खेतों का अन्न खाकर
बड़ा जो हुआ हूँ
उसी में मिलकर
मेरी आत्मा तृप्त हो जायेगी.

एक कुशल एकाउंटटेंट होने के कारण
अगर मैं
पाप और पुन्य के खातों का
मिलान करुँ तो
पुन्य की बाकी (बैलेंस) आएगी
और इस हिसाब से नियमानुसार
मैं स्वर्ग का भागीदार
होउंगा
चूंकि किस्मत के मामलों में
बड़ा ही फिसड्डी रहा हूँ-
कभी कोई पुरस्कार
क्रिकेट मैच या फिल्म का
पास तक जीत नहीं सका
इसलिए स्वर्ग का पास मिलेगा
मुझे शक है
और अगर मिले भी तो
क्या पता वहाँ भी
"कंडीशंस अप्प्लाई" हो.

मैं आस्तिक तो हूँ
पर धार्मिक नहीं
उसके बाकी भक्तों की भांति
ना कभी मंदिर जाता हूँ
ना मिठाइयों की रिश्वत देता हूँ
ना गुणगान करके
मस्का लगाने की आदत सीखी
ना उपवास कर पाता हूँ
ना घंटी हिलाता हूँ
ना कोई पोथी पढी कभी
यानी देखा जाय तो
धार्मिक मामलों में भी
सबसे फिसड्डी
अब मरने के बाद आदतें
कौन सी जाने वाली हैं?

अगर भगवान भी
बहुत चापलूस पसंद हुए
तो मेरी वाट लगना तय
क्या पता
अगर मूड ठीक ना हुआ तो
रिटर्न टिकट भी थमा सकते हैं.

Tuesday, June 22, 2010

ज़िंदगी

अपने आप से लड़ते लड़ते
हार गया मैं
दुनिया को फतह करने के
इरादे से चला था
दिल में जोश और उमंगों की
कोई कमी नहीं थी
सोचता था
जमाने को अपने क़दमों में डाल कर ही चैन लूँगा
बादलों को रौंदकर
आसमान को मुठ्ठी में बाँध लूँगा
जाने क्या क्या और बहुत कुछ
सोचता था लेकिन
आखिर, मैं हार गया
अपने आप से.

कभी भी निगेटिवली
नहीं सोचता था
बड़ा ही आप्टिमिस्टिक था मैं
कायरों के ऊपर मुझे तरस आता था
लोगों का मैं अक्सर
हौसला अफजाई करता था
कि मुश्किलों से लड़ना सीखो
हार से कोई भी वास्ता मत रखो
बस यही सोचो कि
तुम्हे जीतना है
हर कीमत पर
हर हाल में
लेकिन मैं ही हार गया.

सबसे पहले दमे से
जान पहचान हुई
इस दमे ने तो दम ही निकाल दिया
कई बार मरते मरते भी
लगा मैं बच गया
यूँ लगता था जैसे
किसी ने साँसे खींचकर
खूंटी पर लटका दिया हो
छटपटाते छटपटाते
अपने हाँफते दिल को
संभालने की कई बार कोशिश की
यूँ लगता था जैसे दिल फिसलकर
दूर चला जा रहा हो
बिना सांस के
और धडकते हुए थके दिल के
साथ कई रातें काटी है मैं
कैसे? यह मैं ही जानता हूँ.

दिल और फेफड़े की
बेवफाई से अभी उबर भी ना पाया था
कि आँखों ने दगा दे दिया
तबसे कांच की नकली
जुडवा आँखों से काम चला रहा हूँ.

खांसी से अपनी बचपन की यारी है
दमे की वजह से
गले और नाक भी रुसवा कर गए
और यह सब
एलर्जी नाम के किसी
भयानक दैत्य की करतूत है
अभी कुछ रोज पहले
मुझे स्किन एलर्जी भी हो गयी
डाक्टर दोस्त ऐसा बताते हैं
क्योंकि नहाने के बाद बने
लाल लाल रंग के डिजायनों से
यही साबित होता है.
पीठ के दर्द ने वैसे ही जीना दूभर कर रक्खा है
जाने और कौन सी बीमारियाँ
बची हैं.

मैंने कभी भी किसी का
बुरा नहीं किया
ना तो बुरा चाहा
दारू, सिगरेट, मॉस मछली को
हाथ तक नहीं लगाया
पराई स्त्री को छूआ तक नहीं
फिर क्यूँ हुआ
यह सब मेरे साथ?

एक एक करके
सारे सपने ध्वस्त हो गए
मेरी आँखों के सामने
एक जिंदादिल इंसान
आज एक चलती फिरती
लाश बन गया है
अब देखता रहता हूँ
चुपचाप
उन अरमानों को
धुंआ होते हुए
टुकुर टुकुर ताकती
नन्हीं नन्हीं आँखों से
असहाय सा.

ज़िन्दगी बहुत खूबसूरत है
यह पहले भी जानता था
अब समझता हूँ.

बरसात

दिल के संदूक को
खंगाला
वो ग़म हाथ लगा
जिस पर तुम्हारे काजल का
काला तिल चस्पा हुआ था
जिस पर तुम्हारे
चूमते वक़्त की
पडी थूक की बूंदे
अभी तक मौजूद थी

उनसे वैसी ही खुशबू आ रही थी जैसे
कभी तुम्हारे बदन से आया करती थी-
भीनी भीनी गुलाब जल की तरह
और हाँ
उसमें तुम्हारे बाल का
एक टूटा हुआ सिरा भी
चिपका पडा था.

बात पुरानी हो चुकी थी
मिट्टी की कई परतें पड़ चुकीं थीं
उसे पोंछा
चमकाया
तो उसमें मेरा चेहरा दिखने लगा
जैसे तुम मेरी पुतलियों में
अपना चेहरा तलाशती रहती
मुझे हंसी आई
गौर से सूना तो
तुम्हारी हंसी की खनखनाहट
साफ़ सुनाई दी
छुआ तो
फिसल गयीं मेरी उंगलियाँ
जैसे
तुम्हारी गोरी बाहों को
छूने से फिसला करतीं थी.

गिरते गिरते बचा
होश आया तो याद आया
सड़कों पर काई जमी पडी है
आजकल
इस शहर में
बरसात बहुत होने लगी है.

द्वंद्व

दो नावों में चढ़ा हुआ हूँ
द्वंद्व में ऐसे फंसा हुआ हूँ
माँ कहती है उत्तर जा
मन कहता है दक्षिण जा

शाम का राशन ख़त्म हुआ
लकड़ी जलकर भस्म हुई
माँ कल भी तो खाई नहीं थी
खर्च सारी रकम हुई

बहना की शादी करनी है
बाप दमे से तड़प रहा है
फिर भी पीता जहर तम्बाकू
जिस्म उसका अकड़ रहा है

काना बनिया ना दे उधार
अक्सर माँ को रहे बुखार
बारिश में घर भी चूता है
रिसने लगी है हर दीवार

ऊँची ऊँची आसमां छूती
चारों तरफ खड़ी मीनारें
नन्हीं नन्हीं उनकी खिड़कियाँ
देखके मुझको करें इशारे

रात को सारे जब सो जाते
जगकर मैं सपने बुनता
उम्मीदों के पर लगाकर
आसमां में उड़ता रहता

सुबह सबेरे माँ जगाती
रूखा सूखा मुझे खिलाती
मुझको काम पे जाना होगा
ख़त्म है राशन याद दिलाती

पढ़ना लिखना मैं भी चाहूं
घर का भी तो ख्याल है रखना
किसको चुनूं मुझे बताओ
रोटी चुनूं कि सपना?

Monday, June 21, 2010

मुसलमान- भाग दो

सुनीता कुकरेजा
बड़े आराम से
स्लीपर कोच में बैठी रहीं
आलू चिप्स कुरकुराया
कुल्हड़ में चाय सुरका
बिस्किट भी कुतरे
फिर दो घूँट पानी पीकर
मुंह पोंछा और
बड़े इत्मीनान से
पालथी मार कर बैठ गयीं
पर्स से रुद्राक्ष की माला निकालकर
बड़ी तेजी से कुछ
बुदबुदाने लगीं.

बीच बीच में
ध्यान बँट जाता तो
बुदबुदाना बंद सा हो जाता.
करीब साल बाद
बेटी के वहाँ जा रहीं थीं
नाती का ख्याल आते ही
मुरझाये से झुर्रीदार चेहरे पे
रौनक आ गयी
उसकी बहुत सी बातें याद हो आने से
हंसी छूट गयी
बीच बीच में
उनकी नज़र
ऊपर नीचे, दायें बाएँ बैठे
पसेंजरों पर जाती रही
खूबसूरत औरतों को
तिरछी नज़र से मुयायना करती
भौहें सिकुड़ गयीं
किसी का मेक अप ठीक नहीं
तो किसी को बोलने का शऊर नहीं
लेकिन उनकी खूबसूरती देख जलन तो जरूर हुई.
उनके बच्चों को प्यार करने को
जी भी ललचाया
वहीँ गंदी देहाती औरतों को देख घिन सी आई
उनके रोते गंदे बच्चों को देखकर
मितली सी हुई
बस चलता तो जरूर
कोच बदल लेतीं
असहाय होकर उन्होंने
मुंह ही फेर लिया.
फेरते ही कुकरेजा साहब की फ़िक्र
होने लगी.
कैसे रह पायेंगे
दो हफ्ते यूँ अकेले?

उनको लगा किसी ने टोक दिया
इसलिए माला जपने में गति सी आई
मगर जल्द ही
टूट भी गयी
उन्हें चिंता सताने लगी
बेटी को गिफ्ट की सारी
पसंद आएगी कि नहीं
ऐसी अनेक गंभीर समस्याओं से
जूझ ही रहीं थीं कि
दो यात्री चढ़े.

ट्रेन भी खुल गई
जैसे इन्ही का
इन्तेजार कर रही थी.
इन्हें देखते ही
उनके हाव भाव बदलने लगे.
हाय रब्बा!!!
इनको यहीं बैठना था
शक्ल तो देखो इनकी
देखते ही डर लगता है
लम्बी लम्बी दाढ़ी
मूछें सफाचट
घुटने तक पायजामे
सर पे अफगानी टोपी
बदन से अजीब सी बदबू.

ये यहाँ क्या कर रहे हैं?
जाएँ पाकिस्तान
रहेंगें हिंदुस्तान में
नमक खाएं यहाँ का
और गायेंगें वहां की
बड़ी ही एहसानफरामोश कौम है
सब के सब आतंकवादी हैं
गद्दार, देश के दुश्मन
इंसानियत के दुश्मन
मैं तो कहूं
मुसलमान और सांप मिलें
तो पहले मुसलमान को मारो
सांप कांटना भूल भी जाये
लेकिन. . .

इन्ही दहशतगर्दों ने मेरे इकलौते बेटे
रविंदर की जान ली थी
भगवान इन्हें कभी माफ नहीं करेंगें.

अचानक
हिचकी आनी शुरू हो गयी
जल्द ही उन्होंने जो कुछ खाया था
बाहर कर दिया.
सामने बैठे रफीक ने
पानी का बोतल दिया
पीठ सहलाया
और कहा-
मांजी, आप लेट जाईये
आराम मिलेगा
वह लेट गयीं
वाकई आराम मिला!!!
फिर अचानक
एक नया विचार कौंधा-
सारे मुसलमान
एक जैसे नहीं होते
कुछ अच्छे भी होते हैं

Sunday, June 20, 2010

मनमौजी ख्याल

कहाँ से आ जाते हैं
इतने सारे ख्याल?
वक़्त बेवक्त
'मूड' अच्छा हो तो खराब कर देते हैं
और खराब हो तो ठीक भी कर देते हैं.

खासकर
जब अकेला होता हूँ
और तन्हाई होती है
यूं लगता है जैसे किसी ने
चुपके से आके
ख्यालों की
लाल पीली इंजेक्शन
लगा दी हो,
जो दिमागी रेत पर
ख्यालों की
घासें पनप जाती हैं
मौसम . . . .
खुश्क हो तो भी.

इंतज़ार

जब सारी दुनिया सो जाती है
तब भी मैं जागता रहता हूँ
कोरा कैनवास लेकर
इन्तजार करता हूँ
किसी ऐसे ख्याल का
जो आकर रंगों भरा
ब्रश घूमा देगा

हवाओं से छानता रहता हूँ
खुशबू वाला पैगाम
जो गजल बनके
कागजों पर उतरेगा

पलकें मूंदे रात गए
राह देखता हूँ
किसी परिचित से ख़्वाब का
जो बरसों पहले आया था

कयास लगाता हूँ
कोई पायल झनकी है
कोई चूड़ी खनकी है
यूं ही बेमतलब ही
रोज की तरह

जानता हूँ
कोई नहीं आने वाला
कोई नहीं आएगा
मगर बस यूं ही
दिल बहलाने के लिए.

अजीब है ये दुनिया

उलझी हुई सी ज़िन्दगी में
पत्थर गिरा एक चाँद सा
फिर सुहानी हो गयीं शामें.

गिर पडा इक बूँद सा
दरिया मेरी आँख से
और एक शहर डूब गया.

आसमान को जोतकर
फसल तो उगा ली
पर जमीं बंजर हो गयी.

खिडकियों से झांककर
देखा ख्याल ने
तो मुर्दे सो रहे थे.

मैंने जो लिखा है
वो अजीब सा नहीं है.
मगर जो अजीब सा है
वो अजीब लगता नहीं है.
मसलन इस देश में शराब मिलता है
पानी नहीं
गधे समझदार हैं
इंसान से
बन्दूक सस्ता है
रोटी से
मजहब बड़ा है
मुहब्बत से.

Sunday, June 6, 2010

अबकी

अबकी आऊंगा तुमसे मिलने तो
गिले शिकवे भी दूर कर दूंगा
इसके पहले कि जम जाए तेरा गुस्सा
तेरे गुस्से के कई फांक कर दूंगा

लेपकर नमक और मिर्ची
रखना सिरहाने मेरे
माज लेना अपने आरजूओं को
ताकि होश रहें ठिकाने मेरे
तैर कर डुबकियां लगा लेना कई
जब भी पिघलेंगें जज्बात मेरे
इसके पहले कि ठण्ड लग जाये तुम्हे
अपनी गर्म बाहों में भर लूँगा

बातों की चाशनी लब से चखना
छानकर भींगें गेसुओं से
पाग लेना अपनी नज़रें
मेरी नज़रों की मिस्री मैं
सिंक जाएँ तुम्हारी साँसे भी
भाप की उडती सर्द आहों से
भूल पाऊं ना वो लम्हे सो
गर्म ताज़ा ही उन्हें रख लूँगा.

अबकी आऊंगा तुमसे मिलने तो
गिले शिकवे भी दूर कर दूंगा

ख़त

बात इतनी सी नहीं
कि तुमने ख़त लिखा

ख़त लिखने के पहले
कुछ सोचा होगा
बहुत कुछ महसूस किया होगा
तुमने याद किया होगा
पुरानी बातें
हमारी मुलाकातें
होंठों को चाटा होगा
दबाकर काटा होगा
हंसी भी छूटी होगी
पलकें मूँद कर
आँखों को मींचा होगा
साँसों को छोड़ा होगा
कुछ परेशानी में
कुछ बेकरारी में
इधर उधर
टहला होगा
सोफे पर बैठ कर भी
बेचैनी हुई होगी.

फिर ख़त लिखने का ख्याल आया होगा
लेकिन समझ में नहीं आया होगा
कि शुरू कहाँ से करें.
हाथ कांपें होंगें
दिल धड़का होगा
पसीने टपके होंगें
लिखकर काटा होगा
फिर से लिखा होगा
सोच सोचकर
कई दफा तुमने
मुस्कुराया भी होगा

मैं सब कुछ महसूस कर सकता हूँ
इस ख़त को पढ़कर

मुंबई

बस और ट्रेन के धक्कों से
सीधी हो जाती है कमर
सारा दिन धुंआ और धुल से
पेट जाता है मेरा भर
और जो रहा सहा होता है
सब भूल जाता है, पीकर.

That's Mumbai
The city, I hate to love.

मुसलमान

वह मुसलमान कहता था खुद को
जिहाद करने की बात करता था वो
ऐसा अल्लाह ने फरमान दिया है
बड़ी बड़ी बातें जो समझ से परे थीं
मरने मारने की बातें
कुरान की बातें
कौम की बातें
काफिर की बातें
मुहम्मद की बातें
क़त्ल की बातें
उसकी हर बात से
नफरत फैलती थी
खून टपकता था

मैंने पूछ लिया
"पहले पैदा कौन हुआ- इंसान या मुसलमान?
अगर खुदा ने मुसलमान बनाये
तो बाकी कहाँ से आये?"
वो तो बस आग बबूला हो गया.
चीखा
"काफिर है. मार डालो इसे".

पहले मैं अक्सर समझता था
अल्लाह इंसानों से प्यार करता है
मुसलमानों से नहीं
मैं गलत था शायद.

छोटी बात

कहने को तो वो
छोटी सी ही बात थी
पर दिमाग में
यूँ जाके अटकी
कि बस खून ही खून
हो गया
काफी जखम सा बन चुका है
और रह रह कर
उसका पीब
रिसता रहता है.

किसने कहा
वो छोटी बात थी?

अश्क़

पानी की जो बूँद गिरी थी
आँखों के कोनों से
लुढ़कती लुढ़कती
ख़त्म होती
इकठ्ठी होती
आगे बढती हुई
नाफ़१ में जा गिरी
लगा अब घास उग आएगी. . .

अहा!! क्या कहूं
मालूम होता है जैसे
सहरा में दूर कहीं
छोटी सी पोखर
अपने वजूद पर इतरा रही हो. . .
दिल की धडकनों से
गोया पोखर सिहर जाती हो.

साथ लाई थी वो
काजल की
धुली धुली सी उदासी
जो हरसूं फ़ैल चुकी थी
साथ साथ
सबाहत२ और लताफत३ भी
धो लाई थी.

फिर वह पानी
नौ-ब-नौ४
मीठा हो गया.


माएने: १ नाभि, २ गोरा रंग, ३ कोमलता, ४ बिलकुल ताज़ा.

Saturday, February 27, 2010

मैं और मेरा फ्रसट्रेशन

मैं और मेरा फ्रसट्रेशन
अक्सर ये बातें करते हैं
कि ऐसा होता तो कैसा होता
वैसा होता तो कैसा होता
एक मस्त रेसिंग कार होती
मेरी खूबसूरत सी गर्ल फ्रेन्ड होती
जिसे लोंग ड्राइव पर दूर कहीं ले जाता
मैं और मेरा फ्रसट्रेशन
अक्सर ऐसी बातें करते हैं

किसी कम्पनी का मालिक होता
या अच्छी नौकरी होती
प्यारी सी पतिव्रता पत्नी होती और
मेरे तीन चार प्यारे प्यारे चूजे
बडा सा बंगला होता
दस बारह नौकर होते
मेरा बोस भी मेरे यहाँ नौकरी करता
और फोकट की दो- चार गालियाँ खाता
बाप दादा की छोडी इतनी जाय्दाद होती
कि मैं दोनो हाथों से लूटाता
मैं और मेरा फ्रसट्रेशन
अक्सर ये बातें करते हैं

न किसी का डर होता
न किसी चीज से खौफ़ होती
जब भी गुस्सा आता तो लगे हाथ
दो दो जमा देता
लिफ्ट न देने वाले रिक्शेवाले को
तंग करने वाले पोलिसवाले को
घूस मागनेवाले सरकारी बाबू को
मैं पिछले जन्म में जरूर किसी
सूबे का राजा रहा हूँगा
जिसकी आत्मा ने अभी तक
आपनी आद्तें नहीं बदली.
अब अफसोस तो यह है कि
राजे रजवारों का न जमाना रहा
न मेरे वालिद ने इतनी
जायदाद बटोरी
कि मैं नौकरी के मायाजाल से
मोक्ष पा सकूँ
कहने को बहुत कुछ है दिल में
लेकिन किससे कहूँ
आखिर कब् तक यूं ही खामोश रहूँ
और सहूँ
कब् तक दिल के अरमानों को हवा देता रहूँ
सुलगाता रहूँ?
जी तो चाहता है कि चीख चीख कर
चिल्ला चिल्ला कर लोगों को बता दूँ
कि हाँ मैं फ्रसट्रेटेड हूँ
फ्रसट्रेटेड.

Friday, January 22, 2010

अंजलि की सहेली

सुन अंजलि, तेरी गली मुझको मिली
रूठी हुई सी ज़िन्दगी, जो करने लगी
कुछ दिल्लगी जो बन गयी दिल की लगी
हैरान था, परेशान था, इस बात से अनजान था
वो मनचली जैसे कली, दूधो धुली
इतनी जली१, इतनी भली
गय्यूर२ था, मगरूर था, मैं नशे में चूर था
मजबूर था, कुछ दूर था
उसने कहा आ पास आ
यह जीस्त३ है बस चार दिन
जीना भी क्या है यार बिन
दीदार कर, इकरार कर
जी चाहे जितना प्यार कर
वो छोडके फिर क्या गयी
दुनिया मेरी वीरां हुई
अब आस है, यही प्यास है
लब पे मेरे इल्तमास४ है
वो फिर मिले तेरी गली
दिल में मची है खलबली
सुन अंजलि, ओह अंजलि

१ उज्जवल, २ आन रखने वाला, ३ ज़िन्दगी, ४ प्रार्थना

लोग

ये वही लोग थे
सीधे मुंह बात नहीं करते थे
जब भी उनसे मिलता
आदत से मजबूर
मैं धधाकर मिलता और वे
जैसे नाक पर मक्खी बैठ गयी हो
बिन पूछे,
अजीब सा मुंह बना लेते.

दरवाजे खोलने से पहले
उनके चेहरे पर
हंसी की जो हरियाली होती
पतझड़ की तरह
झड जाती अगर
दरवाजे पर मैं होता.

मैं उन्हें अपना दोस्त समझता था
और वे मुझे एक
गैर जरूरतमंद चीज़
किताबों से जैसे
कवर फट जाते हों
वैसे तो मैं खाने पीने का
कोई शौक़ ही नहीं रखता
इसका यह मतलब तो नहीं कि
कोई चाय- पानी के लिए भी ना पूछे?

हमेशा की तरह
उनके हाल- चाल
मैं लेता
ख़त लिखकर
फोन करके
अक्सर जवाब नहीं मिलते
उनके बर्थडे पर विश करना
मुझे ही याद रहता
ऐसा भी नहीं कि मुझे बुरा ना लगा हो
मगर
कभी कोई शिकायत नहीं की.

----------------
आजकल
दिन में दो चार फोन आ ही जाते हैं
कुछ खुद मिलने चले आते हैं
तब भी
जब मैं उनसे नहीं मिलता
बात नहीं करता
मगर उन्हें बुरा नहीं लगता
वो फिर भी दावत का निमंत्रण देना
नहीं भूलते

मेरा पी ए उन्हें कभी
अपोयमेंट नहीं देता
बाहर गेट पर वाचमैन उन्हें
अन्दर घुसने नहीं देता
मुझे मालूम है कि
वो उसे बताते हैं
कि तुम्हारे साहब हमारे बहुत अच्छे दोस्त हैं
हम सब साथ ही पढ़े बढे हैं.
मुझे यह भी पता है
कि वे सब घर जाकर
दिलखोलकर
मुझे गालियाँ देते हैं
मैं नहीं सुनता
फिर भी.

यही वो लोग थे.

बात

बात ही बात में
बात बढ़ गयी
अब याद भी नहीं कि शुरू कहाँ हुई थी
इतनी तरह की बातें एक साथ
पहले कभी सोचा ही नहीं था

आधी- अधूरी बात
चटपटी बात
मामूली सी बात
भूली बिसरी बात
चिकनी चुपड़ी बात
अजीब बात
बेमतलब की बात
सुनी सुनाई बात
तुम्हारी बात
मेरी बात
उसकी बात
हर तरह की बात

हज़म होने वाली बात
नमक बुरके हुए
जैम लगे हुए
मक्खन चुपड़े हुए
कुछ गीले गीले
कुछ सूखे सूखे
कुछ बस फीके से

नरम मुलायम भी
खुरदुरे भी
आसूओं में सने
खून से लतपथ
चूने की तरह
कोयले की तरह
इस उस की तरह
हर उस की तरह
लाजबाब बात
बेहिसाब बात
बात ही बात

चेहरे

बचपन से देखता आया हूँ
अगर ठीक से गिना होता तो
जरूर कहता कि कितने लाख
चेहरे देखे हैं मैंने
कई चेहरे याद भी हैं
कई लेकिन भूल भी गए.

चेहरों को देखने के बाद
कुछ चेहरे ऐसे लगते हैं कि
उनको बार- बार देखने की तमन्ना होती है
तो किसी को देख
सिर्फ घिन सी आती है
लेकिन अक्सर मौकों पर
कुछ नहीं होता
ना घिन आती है ना ही प्यार
कई चेहरे ऐसे देखे जो देखने में बहुत प्यारे लगे
लेकिन करीब से जब जाना तो
पता चला
कुछ लोग चेहरों पे कई चहरे लगाये फिरते हैं.
और अपनी सहूलियत से
चेहरे बदलते फिरते हैं

लोग कहते हैं चेहरा मन का आईना होता है
यानी मन की बात आपके
चेहरे पर पढ़ी जा सकती है
इस हिसाब से तो
मैं अनपढ़ ही रहा.

देखा
रंग उतरते चेहरों के
देखा
रंग निखरते चेहरों के
देखा
रंग बदलते चेहरों के
देखा
रंगों को भी बेवफा होते हुए.

चेहरे
मकान मालिकों के
चेहरे
किरायेदारों के
चेहरे
झुलसाती धूप में सड़कों पर
नंग धडंग घूमते, भीख मांगते बच्चों के
चेहरे
एयरकंडीशंड कारों में चलने वालों के
चेहरे
अपने ही घर से बेघर हुए
लाचार बुजुर्गों के

चेहरे
जायदाद के लिए लड़ते सगे भाईयों के
चेहरे
विदा होती बेटियों के
चेहरे
धर्म के ठेकेदारों के
चेहरे
देश के गद्दारों के
चेहरे
खून के प्यासे दरिन्दों के
चेहरे
सरहदों पर शहीद होते
फौजी सिपाहियों के
चेहरे
दोगले चरित्र के नेताओं के
चेहरे
जोंक की तरह खून चूसते लालाओं के
चेहरे
बलात्कारियों के
चेहरे
सहमी हुई अबलाओं के
चेहरे
झूठ के दारोगाओं के
चेहरे
मैले कुचैले महीनों से बिना नहाये
मजदूरों के
चेहरे
अपाहिजों के
चेहरे
मरे हुए लोगों के.

कभी सोचा है आपने
इन चेहरों के बारे में
कि किसने बनाये इतने सारे
रंग बिरंगे भिन्न भिन्न
अजीबो गरीब से चेहरे?

कुछ तो बात है इन चेहरों में.

Friday, January 8, 2010

हूक- दो

अजीब हालत हैं
गुस्सा तो आता हैं मगर
किया क्या जाय?
चीखे, चील्लाये या
किसी को मार दिया जाय गोळी?
कितना बर्दाश्त करे कोई
युं ही खामोश रहकर
कब तब तक घुटे कोई?

किसको दोष दिया जाय
कौन गुनेह्गार हैं
तक़्दीर या तक़्दीर लिखने वाला
या खुद मैं या कोई नही
कोस कोस कर थक गया
रो रोकर हार गया
और कितनी ह्दे होती हैं बता तो सही
गम खाने की?

खो रहा हू भीड में
किसी तिनके की तरह
हवाये उडा ले जाती हैं
पानी बहा ले जाती हैं
कोई भी कुचल जाता हैं
देखो फिर,
किसका पैर पड गया अभी?

हूक- एक

सुलगे अरमानो से
छलके पैमानो से
दिल के तूफानो से
तंग आ गया हू जिंदगी.

क्या बताउं कैसी उल्झने हैं
दिन रात कैसे मरता हू
उडने की हैं आरजू पर
पैरो में लगी हैं बेडिया
जैसे किसी ने मेरी नसो में डाल दिया हो
खौलता पानी.

सुझता नही कि क्या करू
पड गये हैं छाले उस जगह
जिस जगह रखे थे ख्वाब चुनकर
जिस वजह से मैं जी रहा था
युं लग रहा हैं गोया बेकार हो रही हैं
जवानी.

हो गया हू तन्हा आज कितना
तनहाई भी हैं कुछ खफा सी
रोज रूबरू होती हैं मुझसे
एक नये रूप में ये जिंदगी
खतम होते नही पन्ने इसके
कितनी लंबी हो गयी कहानी.

Monday, January 4, 2010

मुझे क्या

कहीं कोई गुर्सनागी से मर रहा है
कोई तिश्नगी से तड़प रहा है
कहीं किसी की इस्मत लुट गयी है
किसी का जहां तबाह हुआ है
कहीं मातम का आलम है
कोई हैरान परेशां है
कोई दर्द से बिलबिला रहा है
कोई बईफात ग़मों से लाईल्म हो चुका है.

गाँव के गाँव डूब गए हैं कहीं
कहीं फसलों की तरह नस्लें
मुरझा गयीं हैं
गली गली से
कत्ले आम के ख़बरों की
बू आ रही है
हर तरफ लूटमार मची है
ज़िन्दगी महफूज़ किधर है?

मुझे सुबह सुबह काम पर जाना है
कंप्यूटर के स्क्रीन पर
आँखें फोड़कर घर लौटना है
रास्ते से सब्जियां खरीदनी हैं
टेलीफोन और बिजली के बिल जमा करने हैं
देर से आने पर बीवी के ताने सुनने हैं

जब खुदा को यह सब
दिखाई नहीं देता
सुनाई नहीं देता
तो मुझे क्या?
आज पंद्रह मिनट देर से पहुंचा था
ज़रा अलार्म जल्दी लगाना.

Sunday, January 3, 2010

तेरे बगैर

गिर्दबाद१ से उठते हैं
दिल में रह रह के
गाह-ब-गाह२,
बस इस ख्याल से ही कि
तुम किसी और की हो जाओगी.

एक दस्तगीर की तरह
खड़ी थी तुम मेरे
दुःख में दर्द में
दम ब दम३
कैसे सह पाउँगा
तुम्हारी जुदाई.

यह वक़्त यह दहर४
रुकता नहीं
कभी किसी के लिए
भला रुकी हैं आबोरावां५?

गुजरान६ तो हो ही जाएगी
मगर
तेरे बगैर
नातमाम७ रह जाएगी ज़िन्दगी.

१ बवंडर, २ कभी कभी, ३ हर पल, ४ जमाना, ५ बहता पानी, ६ गुजर, ७ अधूरी

खुदा मेरा

मेरी तरह मेरा खुदा भी
बड़ा सनकी किस्म का है
मेरी बात कभी सुनता ही नहीं
कितनी बार कहा,
दरख्वास्त की
गुजारिश की कि कुछ करिश्मा कर
जेब नोटों से भर दे.

बहुत सारे अरमानों के बीज
जो तुने बोये थे
अब दश्त१ बन चुके हैं
मगर वह हमेशा
लैत-व- लअल२ कर जाता है
अब मुझे क्या मालूम
उसके लिए क्या लाबूद३ है
क्या नहीं.

कब तोड़ेगा सुकूत४ अपनी
कब सुनेगा मेरी सदायें?

१ जंगल, २ टाल मटोल, ३ जरूरी, ४ चुप्पी