जब भी उन आँखों में झांकता हूँ
इक अनजाना सा दर्द
घुमड़ता रहता है.
तुम मुस्कुराती रहती हो,
मगर जाने क्यूँ लगता है
एक सैलाब छुपाये हो,
पलकों में.
गौर से देखूं तो शायद
बरस पड़ें तुम्हारी आँखें.
कुछ नहीं कहके भी
बहुत कुछ कह देती हैं
तुम्हारी आँखें.
और तार तार कर देती हैं
मेरे दिल को,
फट जाता है मेरा
कलेजा.
क्यूँ इतना बेबस हो जाता हूँ?
आखिर कैसे ले लूं
तुम्हारी बलायें?
रो भी तो नहीं सकता
तुम्हारी खातिर;
अश्कों का कुँआ
सूख जो चुका है.
मैं दुआ भी करता तुम्हारे लिए
अगर,
खुदा बहरा नहीं होता.
मंत्रमुग्धा / कविता भट्ट
1 year ago
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