पर्वतों के उरोजों से जब झांकता था सूरज
कल कल करती झरने की जब बहती थी नाक
हवाएं जब सरगम गाती थी और
पत्तियों की सरसराहट गुदगुदाती थी
चद्दर में लिपटी रातें
भट्ठी में ठिठुरती बाहें अंगरायियाँ लेती थी. . .
इन बहुमंजिली इमारतों के दरम्यान
दफ़न हैं जिंदा लाशें
जहाँ न सर उठाने की इजाज़त है
न ही चाहत
जहाँ धक्कों की लत पड़ चुकी है
अपना भी लिया इस शहर को लेकिन
कभी कभी बिलकुल ही
पराया लगता है.
लगता है मैं इसका नहीं
मैं यहां का नहीं.
अब भी गूंजती हैं कहीं किलकारियां
बाकी है बुझा बुझा सा एहसास
और बचपन की कुछेक तरोताजा यादें
फटे लिफाफे में
मंत्रमुग्धा / कविता भट्ट
1 year ago
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