Tuesday, August 25, 2009

बेतरतीब ख़्वाब- भाग दो

इन ख़्वाबों का सिलसिला
बदस्तूर जारी है
कभी थमता ही नहीं
लेकिन इस बार तो कुछ ज्यादा ही
संगीन थे.

एक दिन रत्ना पाठक आयीं थीं
अपने खसम की शिकायत लेकर कहने लगीं
इनसे कहो कुछ
बकवास फिल्में ही कर लें
यह खुद्दारी किस काम की?
घर में चूल्हा नहीं जला कई दिनों से
इन थियेटरों में रक्खा ही क्या है?

मैंने समझाने की कोशिश तो की
लेकिन नसीर साब जिद्दी जो ठहरे
कहाँ सुनते हैं किसी की?

फिर एक रात के लिए
प्रियंका चोपडा मेरे घर आ गई
जाने क्या दिखा उसको मुझमें
एक हफ्ते तक
मेरी बाहें गर्म करने के बाद
वह
जाने कहाँ गायब हो गयी.
आज भी वह शफ्फाफ बदन
आँखों में डोलता है.

दोस्तों, मैं पागल तो नहीं हो रहा?
वैसे अगर यह पागलपन है
तो इसमें भी मज़ा है
अजीब सी लताफत है.

इस बार तो हद ही हो गयी
मैं औरंगजेब के ज़माने में चला गया.
एक दिन अलसाई दोपहरी में
रेडियो चालू करता हूँ
तो किसी दंगे की खबर सुनता हूँ
जब खिड़की पर आता हूँ
तो वही खुनी दंगे दिख जाते हैं.
एक बड़े से मैदान में
सिक्खों और मुसलामानों में
मारकाट होती है.
दृश्य देखा नहीं जाता इसलिए
दूसरे कमरे में भाग जाता हूँ.
कोई भागकर अन्दर ना आ जाए
इसलिए मेरी बहन
झट से दरवाजे बंद कर देती है.

गुरु गोविन्द थे शायद
जिनकी पीठ में कोई छुरा भोंक देता है
फिर उन सरफरोशों के बीच
बुजदिली की चादर लपेटे
मैं शर्मसार हुआ जा रहा हूँ
उन खौफज़दा आँखों को यादकर
गालिब का वो शेर याद आ जाता है

"मौत का एक दिन मुय्यन हैं
नींद रात भर क्यूँ नहीं आती?"

रेडियो की आवाज़ से घबराकर
नींद खुल गयी
उस वक़्त रात के तीन बजे रहे थे

ज़िन्दगी महफूज़ नहीं
ख़्वाबों में भी अब
दंगे होने लगे हैं.

No comments:

Post a Comment