Sunday, September 5, 2021

अध्यापक

मैं अज्ञान के तिमिर में

भटक रही थी।

अर्थहीन, दिशाहिन 

मार्ग पर विचर रही थी। 


रिक्त सा आकाश

धरा भी विरक्त थी

मन था कोरा विशुद्ध

मैं भावशून्य, अव्यक्त थी। 


मेरे नींव के निर्माण में

उत्थान और निर्वाण में

अश्रु में, आनंद में

त्रास और परित्राण में 


तुम धूर समीक्षक 

और तुम्हीं मेरे समर्थक 

आत्मबोध हो गया

जीवन हुआ सार्थक। 


पिता की डांट तो पड़ी

पर मां का दुलार भी 

मित्र भी मिला गुरु में

स्वीकार हो आभार भी।