Monday, April 6, 2009

अजीब

उलझी हुई सी ज़िन्दगी में
पत्थर गिरा एक चाँद सा
फिर सुहानी हो गयीं शामें

गिर पड़ा एक बूंद सा
दरिया मेरे आँख से
और एक शहर डूब गया

आसमान को जोतकर
फसल तो उगा ली
पर जमीन बंज़र हो गयी.

खिड़कियों से झांक कर
देखा ख्याल ने
तो मुर्दे सो रहे थे

मैंने जो लिखा है
वो अजीब सा नहीं है
मगर जो अजीब है
वो अजीब सा लगता नहीं है.

मसलन, इस देश में
शराब मिलता है पानी नहीं
गधे समझदार हैं इंसान से
बन्दूक सस्ता है रोटी से
मज़हब बड़ा है मुहब्बत से.

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