Monday, September 14, 2009

एक बूँद

कहीं किसी रोज़
एक बूँद गिरा आसमान से
गिरते गिरते सोचा उसने
कि जा गिरूँ किसी नदी में
या झरने में
काश कि गिरूँ समंदर में
और समा जाऊं
उनफ़ती लहरों में
समेट लूं साड़ी कायनात
गरज गरज कर कह दूं
जमाने से
दम है तो आ आजमा ले
अपनी ताक़त
कर ले अपने शिकस्त का
यकीन.

डर भी था उसे कहीं
गिर ना जाए
किसी गंजे के सर पर
धोबी घाट में या
किसी बदबूदार गटर में

"ज्यादा सपने मत देख".
साथी बूँद बोला था.
मगर कहाँ ऐसा होता है
कि जो चाहो वो हो भी जाए?
गिर गया वह किसी परितक्य सी
शांत पड़ी पोखर में

कुछ बुलबुले उठे
और फिर . . .



--
With regards
Deepak
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Wednesday, September 2, 2009

बेतरतीब ख़्वाब - भाग तीन

शर्मीला टैगोर के साथ घंटों
बतियाता रहा,
कई पुरानी यादें ताजा हों आयीं
और उनकी आँखें डबडबा गयीं.
हीरोइन बनने के चक्कर में
कैसे पढ़ नहीं पायीं?
कितना बुरा लगा जब
उनको इग्नोर करके
आशा पारेख को
सेंसर का हेड बनाया गया.
कुछ देर उनकी गोद में सर रखकर
उन्हें दिलासा देता रहा
कि इतने में सैफ सिटी बजाता
कमरे में झूमता हुआ आया.
बहुत खुश था क्यूंकि उसे
कोई अच्छी फिल्म का
ऑफर मिला था.

इतने में पंचम दा जाने कहाँ से
टपक पड़े
रेडियो ऑन किया और गीत बजने लगा
"मेरे नैना सावन भादों. . ."
फिर मैंने उनसे पूछा:
"पंचमदा, आप तो किशोर दा को
बहुत अच्छी तरह से जानते थे
उनकी कोई निशानी दिखाओ ना
या फिर कोई बात ही बता दो"
कहने लगे-
"किशोर, लोगों को बहुत सताता था. . .
बहुत मजाकिया था".
इतना तो मैं भी जानता था
लेकिन अब जो उन्होंने बताया
वो मैंने किसी भी अखबार, रेडियो
या इंटरव्यू में ना पढ़ा ना सुना था.

"एक बार आशा से बोला:
मैं गाजीपुर में एक फिल्म के
फोटो सेशन के लिए गया था
वहां किसी बलाप्पम होटल में रुका था.
फिल्म का नाम था-
एक के बीच ३,६३८ चोर."
ना तो इस नाम का मुझे
कहीं होटल मिला गाजीपुर में
और ना ही वो फिल्म कभी रिलीज़ हुई.

पंचम ने यह भी बताया कि उन्हें
पपीते (?) से बहुत डर लगता था.

तभी अलार्म बज उठा
और मैं किशोर दा के बारे में
कुछ और नहीं जान सका.