Friday, April 3, 2009

दोस्त

तुमने कहा कुछ लिखो
ज़िन्दगी के बारे में
तुम्हारी, अपनी और
सबकी ज़िन्दगी के बारे में.
तो सोचना शुरू किया पर
समझ नहीं पाया
शुरू कहाँ से करुँ ?

मुझे अपनी ज़िन्दगी से
हमेशा से शिकायत रही
अकसर यही सोचता कि आखिर
यह मेरे साथ ही क्यूँ?

मैं अपने ग़म लेकर घंटो बैठा रहता
रोता रहता, कोसता रहता
खुदा को, अपने नसीब को.
मगर सबके ग़मों को देखा
तो यह जाना और महसूस किया,
मुझे इतना रोने का हक नहीं.

उन अपाहिजों में मैंने पायी
एक चाहत जीने की
एक ख़वाहिश जूझने की
तमन्ना जीतने की.
और मैं ?

ग़म की कुछ बूँदें क्या पड़ीं
मैं ठिथूरने लगा,
दर्द से कंपकपाने लगा.
जबकि देने वाले ने मुझे
सब कुछ बख्शा
सही सलामत.
सच. मैं डर गया था
ज़िन्दगी से.

मैं तो टूट चूका था
यह तो तुमने एहसास दिलाया
की मैं इंसान हूँ.
मुझमें भी एक आग है
तूफ़ान है.
मैं भी टकरा सकता हूँ
मुश्किल हालातों से
शैतानी ताकतों से
अपनी कमजोरियों से, नाकामियों से.

सच.
मैं भी जीत सकता हूँ
मैं भी जी सकता हूँ
एक मुकम्मल सी ज़िन्दगी
क्यूँकि मेरे पास है
एक खूबसूरत दोस्त
जो लगा देता आग
हर हाल में जीतने की
जो जगा देता है प्यास
जिन्दा रहने की.

अब मैं जीना चाहता हूँ
मुस्कुराना चाहता हूँ
इस दोस्ती के लिए.

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