Sunday, June 20, 2010

अजीब है ये दुनिया

उलझी हुई सी ज़िन्दगी में
पत्थर गिरा एक चाँद सा
फिर सुहानी हो गयीं शामें.

गिर पडा इक बूँद सा
दरिया मेरी आँख से
और एक शहर डूब गया.

आसमान को जोतकर
फसल तो उगा ली
पर जमीं बंजर हो गयी.

खिडकियों से झांककर
देखा ख्याल ने
तो मुर्दे सो रहे थे.

मैंने जो लिखा है
वो अजीब सा नहीं है.
मगर जो अजीब सा है
वो अजीब लगता नहीं है.
मसलन इस देश में शराब मिलता है
पानी नहीं
गधे समझदार हैं
इंसान से
बन्दूक सस्ता है
रोटी से
मजहब बड़ा है
मुहब्बत से.

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