Tuesday, June 22, 2010

द्वंद्व

दो नावों में चढ़ा हुआ हूँ
द्वंद्व में ऐसे फंसा हुआ हूँ
माँ कहती है उत्तर जा
मन कहता है दक्षिण जा

शाम का राशन ख़त्म हुआ
लकड़ी जलकर भस्म हुई
माँ कल भी तो खाई नहीं थी
खर्च सारी रकम हुई

बहना की शादी करनी है
बाप दमे से तड़प रहा है
फिर भी पीता जहर तम्बाकू
जिस्म उसका अकड़ रहा है

काना बनिया ना दे उधार
अक्सर माँ को रहे बुखार
बारिश में घर भी चूता है
रिसने लगी है हर दीवार

ऊँची ऊँची आसमां छूती
चारों तरफ खड़ी मीनारें
नन्हीं नन्हीं उनकी खिड़कियाँ
देखके मुझको करें इशारे

रात को सारे जब सो जाते
जगकर मैं सपने बुनता
उम्मीदों के पर लगाकर
आसमां में उड़ता रहता

सुबह सबेरे माँ जगाती
रूखा सूखा मुझे खिलाती
मुझको काम पे जाना होगा
ख़त्म है राशन याद दिलाती

पढ़ना लिखना मैं भी चाहूं
घर का भी तो ख्याल है रखना
किसको चुनूं मुझे बताओ
रोटी चुनूं कि सपना?

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