Sunday, June 6, 2010

अश्क़

पानी की जो बूँद गिरी थी
आँखों के कोनों से
लुढ़कती लुढ़कती
ख़त्म होती
इकठ्ठी होती
आगे बढती हुई
नाफ़१ में जा गिरी
लगा अब घास उग आएगी. . .

अहा!! क्या कहूं
मालूम होता है जैसे
सहरा में दूर कहीं
छोटी सी पोखर
अपने वजूद पर इतरा रही हो. . .
दिल की धडकनों से
गोया पोखर सिहर जाती हो.

साथ लाई थी वो
काजल की
धुली धुली सी उदासी
जो हरसूं फ़ैल चुकी थी
साथ साथ
सबाहत२ और लताफत३ भी
धो लाई थी.

फिर वह पानी
नौ-ब-नौ४
मीठा हो गया.


माएने: १ नाभि, २ गोरा रंग, ३ कोमलता, ४ बिलकुल ताज़ा.

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