पानी की जो बूँद गिरी थी
आँखों के कोनों से
लुढ़कती लुढ़कती
ख़त्म होती
इकठ्ठी होती
आगे बढती हुई
नाफ़१ में जा गिरी
लगा अब घास उग आएगी. . .
अहा!! क्या कहूं
मालूम होता है जैसे
सहरा में दूर कहीं
छोटी सी पोखर
अपने वजूद पर इतरा रही हो. . .
दिल की धडकनों से
गोया पोखर सिहर जाती हो.
साथ लाई थी वो
काजल की
धुली धुली सी उदासी
जो हरसूं फ़ैल चुकी थी
साथ साथ
सबाहत२ और लताफत३ भी
धो लाई थी.
फिर वह पानी
नौ-ब-नौ४
मीठा हो गया.
माएने: १ नाभि, २ गोरा रंग, ३ कोमलता, ४ बिलकुल ताज़ा.
मंत्रमुग्धा / कविता भट्ट
2 years ago
abe khare pani me ghas nhi ugti
ReplyDeletepeeli pad jati "ukath " jati hai
hahaha