Friday, January 22, 2010

लोग

ये वही लोग थे
सीधे मुंह बात नहीं करते थे
जब भी उनसे मिलता
आदत से मजबूर
मैं धधाकर मिलता और वे
जैसे नाक पर मक्खी बैठ गयी हो
बिन पूछे,
अजीब सा मुंह बना लेते.

दरवाजे खोलने से पहले
उनके चेहरे पर
हंसी की जो हरियाली होती
पतझड़ की तरह
झड जाती अगर
दरवाजे पर मैं होता.

मैं उन्हें अपना दोस्त समझता था
और वे मुझे एक
गैर जरूरतमंद चीज़
किताबों से जैसे
कवर फट जाते हों
वैसे तो मैं खाने पीने का
कोई शौक़ ही नहीं रखता
इसका यह मतलब तो नहीं कि
कोई चाय- पानी के लिए भी ना पूछे?

हमेशा की तरह
उनके हाल- चाल
मैं लेता
ख़त लिखकर
फोन करके
अक्सर जवाब नहीं मिलते
उनके बर्थडे पर विश करना
मुझे ही याद रहता
ऐसा भी नहीं कि मुझे बुरा ना लगा हो
मगर
कभी कोई शिकायत नहीं की.

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आजकल
दिन में दो चार फोन आ ही जाते हैं
कुछ खुद मिलने चले आते हैं
तब भी
जब मैं उनसे नहीं मिलता
बात नहीं करता
मगर उन्हें बुरा नहीं लगता
वो फिर भी दावत का निमंत्रण देना
नहीं भूलते

मेरा पी ए उन्हें कभी
अपोयमेंट नहीं देता
बाहर गेट पर वाचमैन उन्हें
अन्दर घुसने नहीं देता
मुझे मालूम है कि
वो उसे बताते हैं
कि तुम्हारे साहब हमारे बहुत अच्छे दोस्त हैं
हम सब साथ ही पढ़े बढे हैं.
मुझे यह भी पता है
कि वे सब घर जाकर
दिलखोलकर
मुझे गालियाँ देते हैं
मैं नहीं सुनता
फिर भी.

यही वो लोग थे.

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