Monday, July 13, 2009

वक़्त का दीमक

हम भी थे इक वक़्त सिकंदर.
क्या बेखौफ़ जवानी थी,
नसों में लहू उबलते थे,
झुक जाते थे कितने ही सर,
जब झूमके चलते थे.
जब दिलों में ख्वाहिशों के
बुलबुले बनते थे,
आँखों में कामयाबी का सुरूर
चढ़कर बोलता था,
कदम बहके- बहके से उठते थे,
पैरों के ठोकर पे रहती थी दुनिया,
मगरूर होता था बहुत
नासमझ दिल.
सोचते थे
सब कुछ यूँ ही रहेगा. . .

तब सवाल ज्यादा होते थे
जवाबों से,
जिद होती थी
कुछ कर गुजरने की,
तब अपनी ही मनवाने की धुन थी,
और ना किसी की कोई परवाह थी.
ओह! क्या क्या नहीं सोचते थे हम,
इन्किलाब की बातें करते नहीं थकते थे.

अब जब पीछे मुड़कर देखते हैं
तो लगता है कुछ तो नहीं बदला
कुछ भी बदल नहीं पाए हम.
वक़्त का दीमक हमें
धीरे धीरे खा गया.

2 comments:

  1. yahi hota hai ........aapne bahut hi yatharth se judakar likha hai .........pata nahi taisa kyo aisa hota hai ......sundar

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  2. Shayad jyadatar logon ke sath yahi hota hai.

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