क्या ज़माना आ गया
अब न गालिब रहे न मीर
न साहिर पैदा होते हैं न कैफ़ी.
अच्छा हुआ वो नहीं हैं
अगर आज होते भी तो
न कोई नज़्म लिख पाते न ग़ज़ल.
कोई लिक्खे भी कैसे
कहाँ हैं लैला और हीर की तबस्सुम
उनकी शर्मो हया?
वो बांकपन?
वो अल्हड़पन?
कहाँ है मजनूं जैसी दीवानगी?
कहाँ है वैसी पाक मुहब्बत?
सब कुछ वक्फ़ करने की कूव्वत?
ज्योतिकृष्ण वर्मा
9 hours ago

ye to nazariya hai dekhne ka apna apna
ReplyDeletewarna Galib aur Sahir ke nazm hi kafi hai
wo diwangi aur masoomiyat paida karne ko
Un nazmon ko aaj v jab suno to,
har dil me ek pak mahabbat ki dastak sunai deti hai