Saturday, November 26, 2011

दिक्

चाहता हूँ ख़ुशी के गीत लिखूं
मगर इस स्याह-ऐ-दर्द-ऐ- कलम का क्या करुँ.

जमी महफ़िलों में मुस्कुरा भी लूं
मगर इस गुबार-ऐ- दिल का क्या करुँ.

अंदाज़ा नहीं कि ग़म कितना है मेरा
मैं इस बदस्तूर बढ़ते ग़म का क्या करुँ.

लहू का कतरा कतरा देने से गुरेज नहीं
मगर इस ठंडे से खूँ का क्या करुँ.

इक बार फिर से मुहब्बत तो कर लूं
मगर इस नाफरमान दिल का क्या करुँ.

सजदा करुँ मैं दुआ भी मांग लूं
मगर उस बहरे खुदा का क्या करुँ.

किसी से बैर नहीं ना खफा हूँ मैं
मगर एहसान फ़रामोश दोस्तों का क्या करुँ.

इन खारे अश्कों की कसम रोना नहीं चाहता
मगर जो हँसते हैं मुझपे उनका क्या करुँ.

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