हुए नाकाम ज़िन्दगी में कुछ इस तरह से
खींच लाये वो कुछ, कर गुजरने की जद से.
ये उनका सुरूर-ऐ- उल्फत का ही असर था
लौट आये हम अपने, मरने की हद से.
हाल-ऐ-दिल जाना न देखा मुडके किसी ने
उन्ही रास्तों में खड़े थे, कबसे ही बुत से.
क्यूँ लुट जाने चले थे उसकी रानाइयों पे
खुदा से नहीं, ये सवाल है हमारा खुद से.
अफ़सोस उसने झूठा प्यार भी न जताया
वैसे अपने वादे से वो मुकर भी सकती थी.
तंगहाली थी पर ज़िन्दगी कोई मजबूरी न थी
इक टीस सी रह गयी कि, ये सुधर भी सकती थी.
मंत्रमुग्धा / कविता भट्ट
1 year ago
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