Monday, April 6, 2009

चाँद और मैं

चाँद और मैं
दोनों ही तनहा हैं.
वो उधर आस्मां में,
मैं इधर जमीन पर.

कभी दरख्तों१ से
तो कभी दरीचों२ से
झांक कर देखता है मुझे
कुछ कहना चाहता
शायद
पर कह नहीं पता है
शायद.
उसकी आँखें कहती हैं
चेहरा बताता है,
बहुत ग़म है उसे.

वैसे तो इस शहर में
हजारों घर हैं
लाखों खिड़कियाँ हैं
करोड़ो बसते हैं उनमें
लेकिन
उन बाशिंदों को
कभी चाँद नहीं दिखता
उन्हें फुर्सत भी नहीं देखने की.
सूरज की गर्मी को
लोग बर्दाश्त कर लेते हैं
मगर इसकी नर्म चांदनी को
महसूस नहीं कर पाते.

तारे भी कभी चाँद रहे होंगे
डर है कहीं यह आखिरी चाँद भी
ख़त्म न हो जाये.

१. पेड़ २. खिड़कियाँ

2 comments:

  1. Kyu dar hai itna,chand se door hone ka
    Kya akelapan apko andhere me rulata hai
    Hai aitbar v kis par,Chand par?
    Bechara khud,
    jo har bar badalon me chhup jata hai.
    Agar mahsoos hai karna to logon ke dard sahlao
    Phir dekhna chandni ki narmiyan kya hoti hai

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  2. शुक्रिया अमृता. इतनी अच्छी नज़्म के लिए. मुझसे अच्छा तो अप्प लिखती हो.

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