Thursday, April 9, 2009

रिमिक्स

यह नयी नसल है.
जिसे मौसिकी और ग़ज़ल में भी
डिस्को चाहिए.
इसे सुर और ताल की समझ नहीं
न ही समझना चाहती है.

कानों में दिन रात
इअर फ़ोन घुसाए,
जो बहरी होने पर आमादा है,
रेडियो जोकी की बकवास
और उलजलूल गानों में
मनोरंजन ढूंढती है.

मियां की मल्हार, राग भैरवी या दरबारी.
हर्मोनिअम और तबला
इसकी समझ से परे है
फास्ट फ़ूड की नसल है
मौसिकी भी वैसी ही चाहिए
यानी 'जंक म्यूजिक'.

Tuesday, April 7, 2009

बरसात

रात इक बात आई थी
कहने ख्याल से
कि यादों के जंगल में
आग लगी है,
अश्कों का पता पूछ रही थी.

तब आँखों में चुभ गया
इक तिनका सा ख्याल
और पानी बरस पड़ा.

नयी पीढ़ी

बातों की कद्र नहीं
जज्बातों की कीमत नहीं
हर चीज़ पैसों में तुलती है.
दिलों में कहीं कहीं
इंसानियत मिलती है.

इस नयी पीढ़ी को
न आस्मां है, न जमीन
फिर भी गुरूर है
जाने किस बात से?

यारों, इन्हें बताओ
यह वक़्त कभी
किसी का सगा नहीं हुआ.

Monday, April 6, 2009

चाँद और मैं

चाँद और मैं
दोनों ही तनहा हैं.
वो उधर आस्मां में,
मैं इधर जमीन पर.

कभी दरख्तों१ से
तो कभी दरीचों२ से
झांक कर देखता है मुझे
कुछ कहना चाहता
शायद
पर कह नहीं पता है
शायद.
उसकी आँखें कहती हैं
चेहरा बताता है,
बहुत ग़म है उसे.

वैसे तो इस शहर में
हजारों घर हैं
लाखों खिड़कियाँ हैं
करोड़ो बसते हैं उनमें
लेकिन
उन बाशिंदों को
कभी चाँद नहीं दिखता
उन्हें फुर्सत भी नहीं देखने की.
सूरज की गर्मी को
लोग बर्दाश्त कर लेते हैं
मगर इसकी नर्म चांदनी को
महसूस नहीं कर पाते.

तारे भी कभी चाँद रहे होंगे
डर है कहीं यह आखिरी चाँद भी
ख़त्म न हो जाये.

१. पेड़ २. खिड़कियाँ

यूँ ही एक दिन

आंसूओं में पिरोये था
कुछ ग़म,
धडकनों में गुथे थे
कुछ ख्वाब,
लबों से चिपकी थीं
चंद अनकही बातें,
आँखों में अटकी थीं
जानी पहचानी तसवीरें,
सीने में दफन थीं
कई यादें.

जर्जर उम्मीद की दीवारें
ढह रही थीं.
चेहरे पर खामुशी की एक
मोती पर्त चढ़ चुकी थी.

थका हुआ था बहूत,
नींद भी आ रही थी.
फिर यूँ ही एक दिन,
सो गया. . . .

अजीब

उलझी हुई सी ज़िन्दगी में
पत्थर गिरा एक चाँद सा
फिर सुहानी हो गयीं शामें

गिर पड़ा एक बूंद सा
दरिया मेरे आँख से
और एक शहर डूब गया

आसमान को जोतकर
फसल तो उगा ली
पर जमीन बंज़र हो गयी.

खिड़कियों से झांक कर
देखा ख्याल ने
तो मुर्दे सो रहे थे

मैंने जो लिखा है
वो अजीब सा नहीं है
मगर जो अजीब है
वो अजीब सा लगता नहीं है.

मसलन, इस देश में
शराब मिलता है पानी नहीं
गधे समझदार हैं इंसान से
बन्दूक सस्ता है रोटी से
मज़हब बड़ा है मुहब्बत से.

एक कविता ख़ास तुम्हारे लिए

जब हवा महकने लगे
कोई नदी उनफने लगे
घटा भी बरसने लगे
समझो तुम गुनगुनायी हो.

कहीं कोयल कूकने लगे
पंछी वन में चहकने लगे
दरो दीवार चमकने लगे
समझो तुम मुस्कुरायी हो.

रुत में रंग गहरा हो जाये
सावन और सुनहरा हो जाये
सख्त चांदनी का पहरा हो जाये
समझो तुम घबरायी हो.

राही जब रास्ता भूले
मस्त पवन झूला झूले
खेतों में सरसों फूले
समझो एक ली अंगड़ाई हो.

खुदा ने बेहद सोचा होगा
भरपूर वक़्त लगाया होगा
कुदरत की हर चीज से
चुनकर तुम्हें बनाया होगा
बेशक
सबमें तुम समायी हो.

Friday, April 3, 2009

मस्ती के वो दिन

पीपल के पेड़ की छाँव,
बरगद के झूले,
वो नशीला स्वाद गन्ने के रस का.
अमरुद का कसैलापन,
वो स्कूल से भाग कर
फिल्म देखने का आनंद.

धूप में दिनभर की मस्ती,
चोरी के कच्चे आम
और हरे चने का नाश्ता,
चोरी पकडे जाने का डर
बाबूजी की मार, फिर माँ की दुलार.

बारिश में भीगना,
मिट्टी की सोंधी- सोंधी खुशबू,
गरम- गरम गुड का चटकीला स्वाद
पत्थरों से इमली तोड़कर खाना
और उस जीत का एहसास.

वो अल्हड़पन, वो आज़ादी.
आज के शहर की पैदावार
क्या समझेगी और क्या जानेगी.

हिंदी

यह अनायास ही नहीं हुआ.
हिंदी मेरे रग रग में
पहले से ही थी.
यह तो मैं ही पहचान नहीं पाया.

लेकिन आज यह जान गया.
हिंदी महज एक जुबान नहीं.
यह मेरा अस्तित्व है, अभिमान है.
इसके बिना तो मैं अधूरा सा था.
लेकिन क्यूँ नहीं समझा अब तक?

क्यूँ मैं अंग्रेजियत की नक़ल में इतना
व्यस्त था की खुद को भूल गया था?
क्यूँ शर्म सी आने लगी थी
हिंदी बोलने में?
क्यूँ यह सब गवारपन लगने लगा था?

हॉलीवुड कलाकारों के नाम
जुबान पर होने में फक्र महसूस होता था.
अंग्रेजी गाने रटने की नाकाम कोशिशें भी की
'ब्रांडेड' कपडे पहनने के शौक ने,
अच्छे खाने पीने के आदत ने
मुझसे मेरी सादगी छीन ली.

दरअसल, एक अंधी दौड़ में भूल गया
जाना कहाँ था?
अब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो
सारे चेहरे अजनबी से लगते हैं.
कोई भी अपना सा नहीं.
सब तो पीछे छोड़ आया
बहुत पीछे.

दोस्त

तुमने कहा कुछ लिखो
ज़िन्दगी के बारे में
तुम्हारी, अपनी और
सबकी ज़िन्दगी के बारे में.
तो सोचना शुरू किया पर
समझ नहीं पाया
शुरू कहाँ से करुँ ?

मुझे अपनी ज़िन्दगी से
हमेशा से शिकायत रही
अकसर यही सोचता कि आखिर
यह मेरे साथ ही क्यूँ?

मैं अपने ग़म लेकर घंटो बैठा रहता
रोता रहता, कोसता रहता
खुदा को, अपने नसीब को.
मगर सबके ग़मों को देखा
तो यह जाना और महसूस किया,
मुझे इतना रोने का हक नहीं.

उन अपाहिजों में मैंने पायी
एक चाहत जीने की
एक ख़वाहिश जूझने की
तमन्ना जीतने की.
और मैं ?

ग़म की कुछ बूँदें क्या पड़ीं
मैं ठिथूरने लगा,
दर्द से कंपकपाने लगा.
जबकि देने वाले ने मुझे
सब कुछ बख्शा
सही सलामत.
सच. मैं डर गया था
ज़िन्दगी से.

मैं तो टूट चूका था
यह तो तुमने एहसास दिलाया
की मैं इंसान हूँ.
मुझमें भी एक आग है
तूफ़ान है.
मैं भी टकरा सकता हूँ
मुश्किल हालातों से
शैतानी ताकतों से
अपनी कमजोरियों से, नाकामियों से.

सच.
मैं भी जीत सकता हूँ
मैं भी जी सकता हूँ
एक मुकम्मल सी ज़िन्दगी
क्यूँकि मेरे पास है
एक खूबसूरत दोस्त
जो लगा देता आग
हर हाल में जीतने की
जो जगा देता है प्यास
जिन्दा रहने की.

अब मैं जीना चाहता हूँ
मुस्कुराना चाहता हूँ
इस दोस्ती के लिए.

जूनून

ख्वाब जो मैंने देखा था
और किसी का था.
जिन राहों पे चला था मैं
वो मुफलिसी का था.
इरादा तो जीने का था न कि
खुदकुशी का था.
मगर
क़दमों पे न लगाम था,
न खुद को खुद की
खबर ही थी.

तमन्ना

पत्तियाँ ख़्वाबों की
शाखों से गिर गयीं
अश्कों में ढलकर
आखों से गिर गयीं.
बिखरे हैं आँगन में
तिनके तमन्नाओं के
जरा संभलकर चलो, दोस्त
जमीं गीली है.

कभी कभी

कभी कभी
हम जो चाहते हैं,
वो नहीं होता.
जो पाना चाहते हैं
वो नहीं मिलता.
जितना मिलता नहीं,
उससे कहीं ज्यादा खो जाता है.

ज़िन्दगी को
जितना ही पकड़ना चाहते हैं
वो उतना ही दूर भागती है.
हम चाहें न चाहें
यह ज़िन्दगी कट ही जाती है
थोडी मजबूरी से, कुछ समझौतों से.
और एहसास भी नहीं होता
की कब ख़त्म हो गयी
ज़िन्दगी.

कभी कभी
ज़िन्दगी हमें जीती है.

रिश्ते

पहले जिन रिश्तों में
गर्माहट थी, उमंग थी
अंतरंगता और गर्व की भावना थी
त्याग और सम्मान था
वेग और प्रवाह था
अब सिर्फ
रिश्ते बचे रह गए
उनकी ऊष्मा गायब हो गयी.
सभी भावनाएं क्षीण हो गयीं
रिश्ते
छिछले और खोखले हो गए.