ज़िन्दगी जब अपनी इस शक्ल से गुजरी 'गालिब'
हम भी क्या याद करेंगें कि खुदा रखते थे.
उग रहा है दरो- दीवार से सब्ज़ा, 'गालिब'
हम बयाबान में हैं और घर में बहार आई है.
तुने कसम मयकशी की खायी है 'गालिब'
तेरी कसम का कुछ ऐतबार नहीं.
इश्क ने 'गालिब' निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के.
इश्क पर जोर नहीं, है ये वो आतिश 'गालिब'
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
जब तवक्को१ ही उठ गयी 'गालिब'
क्यूँ किसी का गिला करे कोई
होगा कोई ऐसा भी कि 'गालिब' को न जाने
शायर तो वो अच्छा है, पे बदनाम बहुत है.
जी ढूंढता है फिर वही फ़िरसत के रात दिन
बैठे रहे तसव्वुरे- जानां२ किये हुए.
तू मुझे भूल गया हो तो पता बतला दूं
कभी फित्राक़ में तेरे कोई नखचीर भी था.
पूछते हैं वो कि गालिब कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या?
गम नहीं तुने बर्बाद किया
गम यह है कि बहुत देर में किया.
१. उम्मीद २. महबूब के ख्याल
मंत्रमुग्धा / कविता भट्ट
1 year ago
thanks
ReplyDeleteबहुत खुब।
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