Thursday, February 2, 2012

मेरे आगे

इक अलग अंदाज़ में मिलता है जमाना
होता है रोज ये तमाशा मेरे आगे.
अब यकीं किस बात पे करें बोलो
खुलता है झूठ का पुलिंदा मेरे आगे.
वो जो बड़े मासूम बने फिरते हैं
जगता है उनमें दरिंदा मेरे आगे.
मेरे अरमानों के परवाज़ भी हैं
गिरता है फलक से परिंदा मेरे आगे.
ख्वाबों पे ज़िन्दगी बसर नहीं होती
मरता है मजबूर (इक) बंदा मेरे आगे.
बोलियाँ चाहे जिसकी भी लगा लो
होता है गैरत का धंधा मेरे आगे.
शौक़ से इश्क फरमाओ लेकिन
उठता है इश्क का जनाजा मेरे आगे.
क्या गिला जाके दैरो- हरम में करुँ
है खुदा पहले ही शर्मिंदा मेरे आगे.

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