Thursday, August 27, 2009

नौकरी

बड़ी घबराहट सी होती है
झुंझलाहट भी होती है
सोचता हूँ मेरी रचनाओं में
वजन पैदा क्यूँ नहीं हो रही?

"कैश फ्लो स्टेटमेंट" बनाते बनाते
शायरी की खुमारी कैसे छा जाती है?
क्या दिन थे गालिब
जब तुम नशे में धुत
खूबसूरत नज्में लिखा करते थे.

इधर तो दिन भर
कुत्ते की तरह काम करना पड़ता है
कमबख्त अँगरेज़ चले गए
लेकिन
इस नौकरी की दासता से
कौन निजात दिलाये?

अब ऐसा कोई माई का लाल
पैदा भी तो नहीं होता !!

Tuesday, August 25, 2009

बेतरतीब ख़्वाब- भाग दो

इन ख़्वाबों का सिलसिला
बदस्तूर जारी है
कभी थमता ही नहीं
लेकिन इस बार तो कुछ ज्यादा ही
संगीन थे.

एक दिन रत्ना पाठक आयीं थीं
अपने खसम की शिकायत लेकर कहने लगीं
इनसे कहो कुछ
बकवास फिल्में ही कर लें
यह खुद्दारी किस काम की?
घर में चूल्हा नहीं जला कई दिनों से
इन थियेटरों में रक्खा ही क्या है?

मैंने समझाने की कोशिश तो की
लेकिन नसीर साब जिद्दी जो ठहरे
कहाँ सुनते हैं किसी की?

फिर एक रात के लिए
प्रियंका चोपडा मेरे घर आ गई
जाने क्या दिखा उसको मुझमें
एक हफ्ते तक
मेरी बाहें गर्म करने के बाद
वह
जाने कहाँ गायब हो गयी.
आज भी वह शफ्फाफ बदन
आँखों में डोलता है.

दोस्तों, मैं पागल तो नहीं हो रहा?
वैसे अगर यह पागलपन है
तो इसमें भी मज़ा है
अजीब सी लताफत है.

इस बार तो हद ही हो गयी
मैं औरंगजेब के ज़माने में चला गया.
एक दिन अलसाई दोपहरी में
रेडियो चालू करता हूँ
तो किसी दंगे की खबर सुनता हूँ
जब खिड़की पर आता हूँ
तो वही खुनी दंगे दिख जाते हैं.
एक बड़े से मैदान में
सिक्खों और मुसलामानों में
मारकाट होती है.
दृश्य देखा नहीं जाता इसलिए
दूसरे कमरे में भाग जाता हूँ.
कोई भागकर अन्दर ना आ जाए
इसलिए मेरी बहन
झट से दरवाजे बंद कर देती है.

गुरु गोविन्द थे शायद
जिनकी पीठ में कोई छुरा भोंक देता है
फिर उन सरफरोशों के बीच
बुजदिली की चादर लपेटे
मैं शर्मसार हुआ जा रहा हूँ
उन खौफज़दा आँखों को यादकर
गालिब का वो शेर याद आ जाता है

"मौत का एक दिन मुय्यन हैं
नींद रात भर क्यूँ नहीं आती?"

रेडियो की आवाज़ से घबराकर
नींद खुल गयी
उस वक़्त रात के तीन बजे रहे थे

ज़िन्दगी महफूज़ नहीं
ख़्वाबों में भी अब
दंगे होने लगे हैं.

Friday, August 21, 2009

मेरी प्रिय नज़्म

ना किसी की आँख का नूर हूँ
ना किसी के दिल का करार हूँ
जो किसी के काम ना आ सके
मैं वो एक मुश्त- ए- गोबार हूँ.

ना तो मैं किसी का हबीब हूँ
ना तो मैं किसी का रकीब हूँ
जो बिगड़ चला गया वो नसीब हूँ
जो उजाड़ गया वो दयार हूँ

मैं कहाँ रहूँ मैं कहाँ बसूँ
ना यह मुझसे खुश ना वो मुझसे खुश
मैं ज़मीन के पीठ का बोझ हूँ
मैं फलक के दिल का गोबार हूँ

मेरा रंग रूप बिगड़ गया
मेरा यार मुझसे बिछड़ गया
जो चमन फिजा में उजाड़ गया
मैं उसी की फासले बहार हूँ

- शाह बहादुर ज़फर शाह

Wednesday, August 12, 2009

वो कहती है

वो कहती है
मैं रोमांटिक नहीं हूँ
प्यार भरी बातें नहीं करता
कोई अच्छा गिफ्ट नहीं देता.
वो सच कहती है मगर
मैं भी क्या करुँ ?

सुबह अखबार में पढ़ा
किसी नौजवान को कुछ गुंडों ने
पीट पीट कर मार डाला.
वह नौजवान किसी की जान बचाने में
खुद जान गवां बैठा.
सोचता हूँ अगर
मैं उसकी जगह होता तो?
अब ऐसे में कौन आगे आएगा
और आपकी जान बचायेगा?

अखबार में यह भी लिखा था
कुछ लोगों ने
पचास पुलिस वालों को मार गिराया
यह तो सरासर गलत है, भाई
लेकिन आप क्या करेंगें अगर
आप और आपके बच्चे
भूख से बिलख रहे हों?
आपके हाथ काम ना हो
घर ना हो, पानी ना हो,
पास कोई अस्पताल ना हो
जब रात के अँधेरे में
भायं भायं करता सन्नाटा
आपको बहरा कर दे
जब सरकार सो रही हो
और उसके नुमाईन्दे
हाथ पे हाथ धरे
आपकी बर्बादी का तमाशा देखें

आप और क्या करेंगें?

Tuesday, August 4, 2009

वक़्त जाया करने के लिए

हमने हवाओं को चूमने का इरादा जताया था
उसका गुरूर तो देखो उसने सैंडल दिखा दिया.

गरम है सूरज
तो उसकी क्या खता
कोई यह क्यूँ नहीं सोचता
उसके पास भी दिल होगा.
किसने की थी बेवफाई
जो वह आज भी जल
रहा है.

और कितनी कुर्बानी लोगे
सुना यह खबर?
आज फिर किसी दीवाने का
ज़नाज़ा उठ गया.

घंटो खड़े रहे कि शाम हो गयी
अब खिड़की खुलेगी, पर्दा सरकेगा
खिड़की खुली, पर्दा भी सरका मगर
कमबख्त !! बिज़ली ही गुल हो गयी.

मुबारक हो तुम्हे तुम्हारी जवानी
इसका अचार डालना.
अरे जब हम ही नहीं रहेंगे
तो तुम्हे गुले- गुलफाम कहेगा कौन?